Environment:- संसद के मानसून सत्र में विवादास्पद वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 पारित हुआ और इस पर एक बड़ी बहस छिड़ गई है तथा पर्यावरणवादी और वैज्ञानिक इसका विरोध कर रहे हैं जो पारिस्थितिकीय और प्रकृति के बारे में चिंतित हैं। इस संशोधन के माध्यम से अधिनियम के अधीन वन संरक्षण केवल कतिपय वन भूमि तक सीमित किया गया है। इस संशोधन के माध्यम से सीमावर्ती क्षेत्रों में राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक परियोजनाओं के निर्माण के लिए वनों की कटाई के लिए अनुमति लेने के दायित्व को समाप्त किया गया है तथा इसके माध्यम से वन भूमि पर चिड़ियाघर चलाने, इको टूरिज्म सुविधाएं उपलब्ध कराने जैसी कुछ गैर-वन कार्यकलापों की अनुमति दी गई है और यह सब ऐसे समय पर किया जा रहा है जब न केवल भारत में अपितु विश्व भर में धरती के तापमान में निरंतर वृृद्धि हो रही है।
वन कानून में ये संशोधन अक्तूबर 2021 में पर्यावरण (Environment) मंत्रालय के परामर्श पत्र के आधार पर किए गए हैं जिसमें वन संरक्षण अधिनियम 1980 में महत्वपूर्ण संशोधन करने का प्रस्ताव किया गया था। वन संरक्षण अधिनियम 1980 में वन भूमि में गैर वानिकी कार्यकलापों के लिए दंड, मानदंड आदि का प्रावधान किया गया था। मंत्रालय ने राज्यों से 15 दिन के भीतर अपने सुझाव और आपत्तियां भेजने के लिए कहा था जिसके बाद इन संशोधनों के प्रारूप को संसद में रखा जाना था तथापि इन संशोधनों ने वन संरक्षण अधिनियम के अधिकार क्षेत्र को सीमित कर दिया है और वन भूमि के गैर-वानिकी प्रयोजनों के लिए उपयोग को आसान बना दिया है तथा रेलवे और सड़क परिवहन मंत्रालयों जैसी कुछ एजेंसियों को रणनीतिक और सुरक्षा परियोजनाओं के लिए केन्द्र से अनुमति लेने से छूट दी है।
इन संशोधनों में कहा गया है कि केवल वे भूमि जिन्हें भारतीय वन अधिनियम 1927 और अन्य प्रासंगिक कानूनों के अंतर्गत वन के रूप में अधिसूचित किया गया है या जिन्हें सरकारी रिकार्ड में वन दर्ज किया गया है उन्हें ही इस अधिनियम के अंतर्गत वन माना जाएगा। जबकि वर्तमान अधिनियम में किसी भी वन भूमि पर ये नियम लागू होते हैं। उच्चतम न्यायालय ने 1996 में अपने एक निर्णय में वन कानून के ऐसे प्रयोग की पुष्टि की और कहा था कि वन में सरकारी रिकार्ड में दर्ज भूमि शामिल है चाहे उसका स्वामित्व किसी के पास भी हो न कि डीम्ड वन जिन्हें आधिरिक रूप से वन के रूप में वगीकृत न किया गया हो।
उच्चतम न्यायालय ने राज्यों से यह भी कहा था कि वे अपने डीम्ड वनों की पहचान और उनको अधिसूचित करने का कार्य करें किंतु 30 वर्ष बाद भी राज्यों ने यह कार्य पूरा नहीं किया है और अब इन संशोधनों में सभी प्रकार की भूमि जिन्हें आधिकारिक रूप से वन के रूप में वगीकृत नहीं किया है उन्हें व्यावसायिक कार्यकलापों के लिए खोल दिया है। इससे वर्तमान कानून में वन स्वीकृृति और स्थानीय समुदाय की सहमति की प्रणाली समाप्त हो गई है। इन संशोधनों में राष्ट्रीय सीमाओं की 100 किमी के दायरे में स्थित सड़क या राजमार्ग परियोजनाओं के लिए वन स्वीकृति लेने से छूट दी गई है। Environment
विशेषज्ञों ने इस बारे में चिंता व्यक्त की है कि राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक परियोजनाओं को परिभाषित नहीं किया गया है तथा अवसंरचना परियोजनाओं के माध्यम से इसका दुरूपयोग किया जा सकता है जो स्थानीय परितंत्र के लिए विनाशक हो सकता है। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष स्पष्ट किया कि विश्लेषक समिति द्वारा 1997 में पहचान किए गए क्षेत्रों के रिकार्ड में लिया गया है और उन्हें वन के रूप में रिकार्ड किया गया है। किंतु संशोधनों के पाठ को पढने से कुछ और तस्वीर सामने आती है।
1997 के बाद पहचान किए गए वन क्षेत्रों के लिए स्थिति अस्पष्ट है। जिन वन क्षेत्रों की अभी पहचान की जानी है उन्हें संशोधित कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। इन संशोधनों के आलोचकों की वास्तविक चिंता यह है कि इन संशोधनों से रीयल एस्टेट और खनन लॉबी लाभान्वित होगी। हरियाणा और उत्तराखंड जैसे राज्यों में वन भूमि की अभी पहचान नहीं की गई है और वहां वन क्षेत्र कम होगा। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को इससे और अधिक खतरा होगा क्योंकि इससे अरावली क्षेत्र में रीयल एस्टेट क्षेत्र को लाभ होगा। उदाहरण के लिए फरीदाबाद और गुडगांव में अरावली पहाड़ों के 35 प्रतिक्षत अर्थात 18 हजार एकड़ वन की स्थिति के बारे में अभी निर्णय किया जाना है और इन क्षेत्रों को इन संशोधनों से खतरा पैदा होगा और इनके संरक्षण के लिए विकल्प की आवश्यकता है।
इससे सबसे बड़ा नुकसान नागरिकों को होगा जो भूमिगत जल के रिचार्ज होने तथा जल प्रवाह आदि के लिए वनों पर निर्भर हैं। साथ ही वन क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय लोग भी प्रभावित होंगे। संशोधन की प्रक्रिया का उद््देश्य वन भूमि को विकास परियोजनाओं और सुरक्षा परियोजनाओं के लिए मुक्त करना है किंतु बड़ा प्रश्न उठता है कि जो गैर-मान्यता प्राप्त वनों या डीम्ड वनों में रह रहे हैं, उनकी आजीविका का क्या होगा।
एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू धरती के तापमान में वृृद्धि पर अंकुश लगाने से संबंधित है। धरती के तापमान में वृृद्धि पर अंकुश लगाने के लिए वन क्षेत्र का विस्तार आवश्यक है। विशेषज्ञ प्रश्न उठा रहे हैं कि ये संशोधन पारिस्थितिकीय और पर्यावरण संरक्षण के राज्य के उद््देश्यों के विपरीत है। इन संशोधनों की आलोचना से प्राकृतिक वनों के पुनर्विकास में योगदान हंी होगा। कुछ लोगों का कहना है कि इन संशोधनों से 1996 के गोदावरमन मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय कमजोर हुआ है। पूर्वाेत्तर राज्यों की चिंता को भी उठाया गया है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों की वन भूमि को वन स्वीकृति से छूट दी गई है।
वस्तुत: अंतर्राष्ट्रीय सीमा से 100 किमी के दायरे में परियोजनाओं को अब वन स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इससे वनों की कटाई के बारे में चिंता व्यक्त की जा रही है जिसके चलते पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। पर्यावरणवादियों का कहना है कि यह दायरा 50 किमी और दो हेक्टेयर तक सीमित रखा जाना चाहिए था ताकि स्थानीय लोगों की आजीविका प्रभावित न हो। कुछ लोगों की राय यह भी है कि डीम्ड वनों के लिए केन्द्रीय संरक्षण और प्रतिबंधों से पर्यटन उद्योग और संबंधित कार्यकलापों पर प्रभाव पड़ेगा जिससे स्थानीय लोगों की आय प्रभावित होगी। गत वर्षों में वन भूमि का गैर-वानिकी प्रयोजनों के लिए उपयोग आम बात हो गई है।
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1980 से 10 लाख हेक्टेयर से अधिक सरकारी वन भूमि का उपयोग तथाकथित विकास परियोजनाओं के लिए किया गया है और वर्ष 1950 से ड़ेढ लाख हेक्टेयर भूमि का प्रयोग अन्य कार्यों के लिए किया गया है। वास्तव में यह बहुत दुखद है कि पर्यावरणीय कानून जिन्हें पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था उनका पालन नहीं किया जा रहा है।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 48 क में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण के संरक्षण और सुधार के लिए प्रयास करेगा तथा देश के वन तथा वन्य जीवों की सुरक्षा भी करेगा। अनुच्छेद 51 ए छ के अंतर्गत वनों, झीलों और वन्य जीवों सहित हमारे पर्यावरण का संरक्षण और सुधार हमारा मूल कर्तव्य है। किंतु इन कानूनों का पालन न करने से इनका व्यापक उल्लंघन हुआ है और परिणामस्वरूप पर्यावरण को अलग-अलग तरह से नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा जब धरती के तापमान में वृृद्धि से अधिकतर देशों में अनेक आपदाएं आ रही हैं तो वन भूमि को सीमित करने की ऐसी प्रवृृति न केवल भारत में अपितु अन्य देशों में भी वांछित नहीं है।
भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जनसंख्या का एक बड़ा भाग वनों में रहता है तथा वन उत्पादों से अपनी आजीविका चलाता है। केवल अक्षय उर्जा का उपयोग करने की बातों से आपदाएं नहीं रुकेंगी। वनीकरण पर बल देना होगा तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि तथाकथित विकास परियोजनाएं जिनसे समाज का गरीब तथा पिछड़ा वर्ग लाभान्वित न हो उसके लिए वन भूमि को सीमित न किया जाए और और वनों की अत्यधिक कटाई न की जाए। इसे विकास की एक और गलत धरणा पर आधारित रणनीति कहा जा सकता है। सरकार को लोगों के जीवन में सुधार के अपने दावे को सिद्ध करना होगा। Environment
धुर्जति मुखर्जी, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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