West Africa’s: नाइजर में तख्तापलट के बाद स्थिति गंभीर हो गई है। पश्चिमी अफ्रीकी देशों के संगठन इकोनॉमिक कम्यूनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट ( ईसीओडब्लयूएएस) अर्थात इकोवास ने नाइजर के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का एलान किया है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत के विदेश मंत्रालय ने वहां रहने वाले भारतीय नागरिकों को नाइजर छोड़ने की सलाह दी है। हालांकि, तख्तापलट को अंजाम देने वाले सेना के कमांडर जनरल अब्दुर्रहमान ने देश में जल्द चुनाव करवाकर सत्ता हस्तांतरण की बात कही है। लेकिन साथ ही उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को धमकाते हुए मामले से दूर रहने की हिदायत दी है। West Africa’s
नाइजर में हुए तख्तापलट की घटना को विस्तृत परिपेक्ष में देखें तो तीन बड़े सवाल निकल कर सामने आते हैं। प्रथम, नाइजर में तख्तापलट की घटना क्यों हुई? द्वितीय, जिस तरह से इकोवास ने नाइजर में सैन्य हस्तक्षेप का एलान किया है, उसका आधार क्या है? और तृतीय, नाइजर में लोकतंत्र की बहाली के लिए पश्चिमी देश किस रणनीति पर आगे बढ़ेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि बुर्किना फासो और माली की तरह नाइजर में भी पश्चिमी देशों की रणनीति केवल बयानों तक ही सिमट कर रह जाए। West Africa’s
नाइजर में तख्तापलट का इतिहास कोई नया नहीं है। साल 1960 में नाइजर को फ्रांस के औपनिवेशिक शासन से आजादी मिली थी। तब से अब तक यहां चार बार तख्तापलट हो चुका है। साल 2021 में मोहम्मद बजौम पहली बार लोकतांत्रिक ढंग से हुए सत्ता हस्तांरण में नाइजर के राष्ट्रपति बने थे। नाइजर को विकास के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अमेरिका और फ्रांस जैसी पश्चिमी ताकतों के साथ मजबूत संबंध बनाए। देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत किया। शासन में सेना के दखल को सीमित किया।
लोकतांत्रिक सुधारों की इस प्रकिया से सेना नाखुश थी। देश के भीतर एक के बाद एक हो रही जिहादी घटनाएं बजौम के सुरक्षा तंत्र पर सवाल खड़े कर रही थीं। बीते तीन सालों में नाइजर में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने कई हमले किए हैं। हमलों में नाइजर के कई सैनिक हताहत हुए हैं। महंगाई पर नियंत्रण नहीं लगा पाने के कारण देश की आवाम बजौम सरकार के खिलाफ लामबंद हो रही थी। सेना भला ऐसे माकूल अवसर को कब हाथ से जाने देती। ऐसे में प्रेसिडशियल गार्ड ने सुरक्षा की बिगड़ती स्थिति और खराब सामाजिक और आर्थिक प्रबंधन का हवाला देकर राष्ट्रपति बजौम को अपदस्थ कर सत्ता पर कब्जा कर लिया।
जहां तक इकोवास के सैन्य हस्तक्षेप का सवाल है। तो इकोवास का दावा भी हवा-हवाई साबित होता दिख रहा है। दरअसल, नाइजर क्षेत्र के सात देशों- नाइजीरिया, अल्जीरिया, लीबिया, बुर्किना फासो, माली, बेनिन और चाड के साथ सीमाएं साझा करता है। नाइजीरिया, बेनिन, माली और बुर्किना फासो इकोवास के सदस्य हैं। इन चार देशों में से माली और बुर्किना फासो में सैन्य जुंटा का शासन है। अगस्त 2020 में माली में और अक्टूबर 2022 में बुर्किना फासो में तख्तापलट के बाद दोनों देशों में सैन्य जुंटा की सरकार है।
दोनों देशों ने धमकी दी है कि नाइजर पर किया गया कोई भी बल प्रयोग उन पर किया गया बल प्रयोग होगा। संभवत: इसी वैचारिक मोह के चलते माली और बुर्किना फासो का जुटां प्रशासन नाइजर के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है। शेष दो देश नाइजीरिया और बेनिन हैं। नाइजीरिया समूह का सबसे बड़ा देश और इकोवास का प्रमुख वित्तपोषक है। लेकिन नाइजीरियाई सीनेटरों ने बल के अलावा अन्य साधनों के उपयोग की बात कहकर राष्ट्रपति बोला टीनूबू को संशय में डाल दिया है।
हाल ही में सत्ता में आए टीनूबू के लिए सीनेटरों की राय को नजरअंदाज करना उनके राजनीतिक भविष्य को मुश्किल में डाल सकता है। बेनिन ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। दूसरी ओर इकोवास के बाहर चाड और अल्जीरिया ने भी सैन्य कार्रवाई का समर्थन करने से इनकार कर दिया है । लीबिया की अपनी मजबूरियां है। कुल मिलाकर तो सैन्य कार्रवाई के नाम पर इकोवास पूरी तरह विभाजित नजर आ रहा है। तो क्या इकोवास पश्चिमी देशों के भरोसे नाइजर को धमकी दे रहा है।
रही बात पश्चिमी देशों की रणनीति की तो सबके अपने-अपने हित हैं। अमेरिका नाइजर का एक अहम सहयोगी है। नाइजर के विकास में अमेरिका का बड़ा योगदान रहा है। दोनों देशों के बीच शांति, सुरक्षा और विकास को बढ़ावा देने की प्रतिबद्वता पर आधारित एक मजबूत साझेदारी है। कट्टरपंथी समूहों से मुकाबला करने और रक्षा क्षमताओं में सुधार के लिए अमेरिका नाइजर की सेना और सुरक्षा बलों के साथ मिलकर काम कर रहा है।
अमेरिका लगातार नाइजर की आर्थिक मदद भी करता आ रहा है। बीते दो सालों मे अमेरिका ने करीब 400 मिलियन डॉलर बतौर मानवीय मदद नाइजर को दिए हैं। दूसरी ओर अमेरिका की मिडिल ईस्ट और अफ्रीकी देशों पर नियंत्रण की नीति में नाइजर अहम सहयोगी रहा है। हालांकि, नाइजर के पड़ोसी देश माली और बुर्किना फासो सैन्य तख्तापलट के बाद पश्चिमी देशों के खेमे से निकल कर रूस के करीब आ गए हैं। लेकिन नाइजर के आज भी पश्चिमी देशों के साथ मधुर संबंध हैं ।
मीडिया में चल रही खबरों के मुताबिक तख्तापलट में रूस का हाथ होने की संभावना भी जताई जा रही है। रूस पर शक की एक बड़ी वजह राजधानी नियामी में निकाला गया मार्च है। दरअसल, नाइजर में तख्तापलट के बाद 30 जुलाई को राजधानी नियामी में एक मार्च निकाला गया। मार्च में बड़ी संख्या में लोग रूसी झंडा लहराते हुए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नाम से नारे लगा रहे थे।
कहा तो यह भी जा रहा है कि रूस के मिलिट्री गु्रप येवेगनी प्रिगोझिन ने नाइजर को सुरक्षा का भरोसा दिया है। बदले में नाइजर ने यूरेनियम की खदानों पर वैगनर की हिस्सेदारी का आश्वासन दिया है। यह खबर पश्चिमी देशों के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि यूरेनियम की खदानों पर वैगनर का कब्जा होने से इसके दुरूपयोग की संभावना बढ़ गई है। यही वजह है कि तख्तापलट से अमेरिका और उसके सहयोगी देश नाखुश है। Artical Hindi
इकोवास के प्रतिबंधों के कारण देश में आर्थिक स्थिति खराब हो रही है। यूएस से मिलने वाला सहयोग बंद हो चुका है। प्रतिबंधों के कारण नाइजर की ढाई करोड़ से ज्यादा आबादी तो अंधेरे में डूबी हुई ही है, साथ ही नाइजर के नवजात लोकतंत्र की अभिवृद्धि की कोशिशों को एक बड़ा झटका है। कुल मिलाकर कहें तो हाल-फिलहाल नाइजर के भीतर जो हालात बन रहे हैं, उन्हें देखते हुए लगता है, देश में लोकतंत्र बहाली का काम आसन नहीं रहने वाला है। West Africa’s
डॉ. एन.के. सोमानी, अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)