बेशक पश्चिम बंगाल (West Bengal) में पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने प्रचंड जीत दर्ज की है, लेकिन जो दिन उत्सव की तरह होना चाहिए था, उस दिन खून की होली खेला जाना दुखद है। जिन लोगों की मौत हुई, वे गांव के गरीब, साधारण लोग थे। दशकों से यहां साल-दर-साल चुनावी हिंसा का इतिहास रहा। इस बार के पंचायत चुनावों में भी ऐसा ही हुआ। व्यापक स्तर पर हिंसा के अतिरिक्त आगजनी, बूथ कब्जाने, बैलेट बॉक्स ले जाने व नष्ट करने के साथ जाली मतदान की भी खबरें सामने आई। हमलों में बम व गोली का इस्तेमाल हुआ। West Bengal
सवाल उठ रहा है कि आखिर केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में हिंसा को क्यों नहीं टाला जा सका। सियासी जानकारों का मानना है कि हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति का हिस्सा बन चुकी है, यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद इस पर नियंत्रण संभव नहीं हो पाता। इसी के चलते इस बार की हिंसा ने 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसा का रिकॉर्ड तोड़ दिया, जिसका उदाहरण सर्वाधिक हिंसा के रूप में दिया जाता था, जिसमें दस लोग मरे थे। इस बार छह सौ से अधिक बूथों पर फिर चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले से साफ है कि किस पैमाने पर धांधली व हिंसा हुई है। West Bengal Panchayat Elections
विपक्षी आरोप लगा रहे हैं कि सुरक्षा बलों की तैनाती में देरी और सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में उनकी तैनाती न होने से हिंसा को बढ़ावा मिला। अब हर किसी के जह्न में एक सवाल उठ रहा है कि चुनाव के वक्त होने वाली हिंसा का ये दौर कब खत्म होगा। पश्चिम बंगाल में ऐसी राजनीतिक हिंसा को रोकने के लिए दलगत राजनीति छोड़ कर सहमति बनायी जानी चाहिए। हिंसा के इस चक्र को बंद करने के लिए राज्य में शिक्षा और उद्योग पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल कभी पुनर्जागरण का केंद्र हुआ करता था। वहां आज राजनीति में ऐसी गिरावट निश्चय ही दुखद है।
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