भारत में हाल ही में वित्तीय समावेशन (Financial inclusion) वातावरण में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। वित्तीय समावेशन लोगों को गरीबी से उठाने के लिए एक प्रवेश द्वार की तरह है, जहां पर वित्तीय सेवाओं के पूर्ण उपयोग से लोगों को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाया जा सकता है। वित्तीय संस्थानों में अब कड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है कि वे कम आय वर्ग के घरों को अपने ग्राहक के रूप में जोड़ें और यह कार्य वे न केवल अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए कर रहे हैं अपितु देश के गरीब लोगों के लिए वे द्वार खोलने के लिए भी कर रहे हैं जिससे वैश्विक विकास उनके जीवन को छू सके।
जो लोग बैंक और बैकिंग सेवाओं से जुडेÞ नहीं हुए हैं, उन्हें औपचारिक वित्तीय संस्थानों से जोड़ने को ही वित्तीय समावेशन कहते हैं। वित्तीय समावेशन इसके व्यापार बाजार अवधारणा के रूप में वह विश्वास है कि निर्धनतम और सीमान्त लोगों सहित सभी लोगों की वित्तीय सेवाओं तक पहुंच हो। इस विचार को विश्व बैंक ने समावेशी अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के रूप में बढ़ावा दिया। इससे लोगों को अपने धन को बचाने के लिए सुरक्षित स्थान मिलता है और उन्हें सस्ता और सुलभ ऋण उपलब्ध होता है। उन्हें विश्वसनीय जोखिम प्रबंधन सेवाएं मिलती हैं तथा अपने और अपने परिवारों के जीवन पर बेहतर नियंत्रण के लिए राज्य द्वारा पेंशन मिलती है। Financial inclusion
वित्तीय समावेशन से कारोबार की उत्पादकता बढ़ सकती है। सीमान्त और कमजोर वर्ग जैसे महिलाएं, ग्रामीण लोगों को शक्तियां मिलती हैं और गरीबी को कम करने में सहायता मिलती है क्योंकि उनके लिए जीवन एक लंबा जोखिम है और किसी भी त्रासदी की स्थिति में उनके लिए वित्तीय कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। भारत का अग्रणी वित्तीय समावेशन कार्यक्रम प्रधानमंत्री जन धन योजना की शुरुआत 2015 में प्रत्येक वयस्क भारतीय का बैंक खाता खोलने के साथ शुरू किया गया था और इससे लोगों के जीवन में व्यापक बदलाव आया है। Financial inclusion
आधार, बायोमैट्रिक पहचान प्रणाली और जन धन योजना, आधार तथा मोबाइल नंबर आदि वित्तीय क्षेत्र में व्यापक बदलाव ला रहे हैं एवं इससे भारत वित्तीय समावेशन की दिशा में आगे बढ़ रहा है। डिजिटल वित्तीय सेवाओं की शुरुआत इसका प्रमाण है। इससे भारत में एक बडा सुधार भी आया है और वह सुधार प्रत्यक्ष सब्सिडी अंतरण के क्षेत्र में आया है। अब अनेक राज्य सरकारें सरकारी योजनाओं में भाग लेने वाले लोगों की मजदूरी को सीधे उनके बैंक खातों में अंतरित कर रही हैं तथापि वित्तीय समावेशन तभी सार्थक रहेगा जब यह केवल बैंक खाता खोलने तक सीमित न हो। ग्राहक को अपने बैंक खाते को एक वित्तीय डायरी बनानी होगी और वित्तीयकृत बनाने के लिए उसमे लेन देन करना होगा अन्यथा ये खाते वित्तीय संस्थानों पर एक बोझ बनेंगे। Financial inclusion
एक कारोबारी खाते तक पहुंच वित्तीय समावेशन की दिशा में पहला कदम है और फिर यह खाता इन आवश्यकताओं को पूरा करता है। खाताधारक बनने से लोग अन्य वित्तीय सेवाएं जैसे ऋण, निवेश, बीमा आदि का भी उपयोग करेंगे जिनसे उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार आएगा। खातों में लेनदेन करने से ग्राहकों का वित्तीय कौशल भी बढ़ेगा। इसलिए वित्तीय समावेशन की सफलता के लिए आवश्यक है कि खातों तक पहुंच हो और उनका उपयोग हो।
खाते बचत और ऋण के लिए पहला कदम हैं और यदि इस दिशा में आगे न बढ़ा जाए तो ये सारे प्रयास विफल हो जाएंगे। इसलिए ग्राहकों से अधिक लेनदेन करवाया जाना चाहिए जिससे उनमें धीरे-धीरे बचत की आदत भी आएगी और वे एक दूसरे को पैसा भेजने के लिए औपचारिक साधनों का उपयोग करेंगे तथा उसके बाद वे पेंशन एवं बीमा जैसे उत्पादों का भी प्रयोग करेंगे। सरकार के कदम के रूप में बैंकों को जिन लोगों के बैंक खाते नहीं हैं, उन्हें वित्तीय प्रणाली में लाने के लिए एक बड़ा लक्ष्य दिया गया है और यह वादा किया गया है कि वे राजस्व का स्रोत बनेंगे किंतु उनमें से अनेक खातों में कोई लेनदेन नहीं होता है और वे एक आर्थिक बोझ बन जाते हैं। बैंक इन खातों की सेवा में धन बर्बाद नहीं कर सकते हैं।
सेवाएं तभी तक बनी रहती हैं जब संस्थाएं उन सेवाओं को देने की लागत प्राप्त करें। प्रत्येक वित्तीय सेवा के लिए एक बिजनेस केस बनाया जाना चाहिुए। बैंकों को सुप्त खातों पर दंड लगाना चाहिए और अंतत: उन्हें बंद करना चाहिए तथा इस स्थिति में वित्तीय प्रणाली वहीं पहुंच जाती है जहां वह पहले थी एवं लोग बैंकिंग प्रणाली से बाहर हो जाते है। अंत में ग्राहक की वित्तीय यात्रा वहीं पहुंच जाती है जहां से वह शुरू होती है। ऐसी नीतियां और कार्यक्रम ग्राहकों, बैंकों, आर्थिक पर्यवेक्षकों, मीडिया, बुद्धिजीवियों तथा गैर-सरकारी संगठनों जो आम नागरिकों के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में कार्य कर रहे हैं, उनके लिए निराशाजनक होते हैं और यह इस मिथक को बल देता है कि बैंक गरीब विरोधी है।
़हमें वित्तीय समावेशन की सीमाओं को समझना होगा और हमें इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि इससे ग्राहक और वित्तीय संस्थान दोनों को नुकसान न हो। यह सही है कि बैंकों को वित्तीय समावेशन के सामाजिक परिप्रेक्ष्य को समझना होगा किंतु खाते खोलने और उनके चलाने में समय तथा लागत लगती है जो उनके राजस्व को प्रभावित करते हैं। वित्तीय सेवाओं को डॉक्टर के निदान और उपचार के सिद्धान्त पर चलाया जाना चाहिए। Financial inclusion
हम जानते हैं कि ग्राहक को क्या चाहिए और फिर उन्हें उस उत्पाद को लेने का सुझाव दिया जा सकता है। समुचित तालमेल के अभाव में व्यक्ति हो सकता है ऋण ले किंतु आवश्यकता उसे बीमा या बचत खाते की है और इससे वह ऋण के दुष्चक्र में भी फंस सकता है। अपनी पुस्तक पैराडॉक्स आफ च्वॉइस में समाजशास्त्री प्रो. बैरी ने इस बारे में प्रकाश डाला है कि किस प्रकार अधिक विकल्पों से ग्राहकों की समस्याएं बढ़ती हैं। एक जैसे अनेक विकल्पों से वास्तव में ग्राहकों में भ्रम बढ़ता है और वे कोई अर्द्धलक्ष्य वाला निर्णय लेने की बजाय यथास्थिति बनाने का पक्ष लेते हैं। प्रत्येक वित्तीय उत्पाद की लागत होती है और हमें उसकी लागत पश्चात प्रतिफल के जोखिम को समझना होगा। Financial inclusion
आज वित्तीय और गैर-वित्तीय बाजार में बहुत सारे एजेंट हैं जो बडेÞ आक्रामक ढंग से विभिन्न उत्पादों की बिक्री करते हैं किंतु ग्राहकों के लिए कोई संरक्षण प्रणाली नहीं है। इस संबंध में अतीत के अनुभवों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है जब नवाचार और उद्यमशीलता के नाम पर अनेक जीवन बर्बाद हुए। वित्तीय समावेशन की सबसे बड़ी चुनौती यह समझना है कि जो ग्राहक इसके पात्र नहीं हैं उन तक पहुंचने के लिए क्या अलग किया जा सकता है। यह समझना होगा कि उनके लिए क्या उपयोगी है और उस दिशा में कार्य करना होगा। मोबाइल फोन की उपलब्धता से डिजिटल वित्तीय वित्त व्यवस्था के आर्थिक लाभ संभव हो पाए हैं। वित्तीय सेवाओं का प्रसार मोबाइल फोन तक पहुंच से अधिक तेजी से हो रहा है।
मोइन कॉजी, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)