विधि आयोग ने राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे ‘समान नागरिक संहिता’ (Uniform Civil Code) पर लोगों तथा मान्यता प्राप्त संगठनों के सदस्यों समेत विभिन्न हितधारकों के विचार आमंत्रित कर इस विषय पर नए सिरे से परामर्श की प्रक्रिया शुरू की है। इसके पहले 21वें विधि आयोग ने इस मुद्दे की पड़ताल की थी, उसके परिणामों पर भी राय-मशविरा किया जाएगा। अगस्त 2018 में इस आयोग का कार्यकाल भी पूरा हो गया था। इसके बाद परिवार संबंधी कानूनों में सुधार के लिए 2018 में एक परामर्श पत्र जारी किया गया था।
आयोग ने इस संदर्भ में एक सार्वजनिक सूचना पत्र जारी करने की तिथि से तीन वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद, मुद्दे की प्रासंगिकता एवं महत्व और इस विषय पर विभिन्न अदालती आदेशों को ध्यान में रखते हुए 22वें विधि आयोग ने नए सिरे से पहल शुरू की है। अब यह आयोग एक बार फिर समान नागरिक संहिता पर व्यापक स्तर पर व्यक्तियों और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों से विचार विमर्श करेगा। Uniform Civil Code
धर्म और परंपराएं नहीं रहेंगी कानून का आधार | (Uniform Civil Code)
समान नागरिक संहिता का मतलब देश के सभी नागरिकों के लिए एक साझा कानून अस्तित्व में लाने से है। इसका आधार धर्म और परंपराएं नहीं रहेंगी। धर्म और परंपराओं के हस्तक्षेप के चलते, अनेक विसंगतियां पेश आती रही हैं। इस कारण अदालतों को भी फैसला देने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। हालांकि उत्तराखंड जैसे राज्य अपनी समान नागरिक संहिता तैयार करने में जुटे हैं। UCC
दरअसल समान नागरिक संहिता वह प्रस्तावित कानून है, जिसके अंतर्गत पूरे देश के सभी नागरिकों को एक समान कानूनी अधिकार मिलेंगे। इस कानूनी एकरूपता से विसंगतियां दूर होंगी और अदालतों को फैसला देने में सुविधा रहेगी। इस कानून के तहत सभी धर्मों और पंथ के लोगों के लिए विवाह, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में एक समान नियम लागू किए जाएंगे। करीब आठ महीने तक बैठकों में हुए विचार-विमर्श के बाद विधि आयोग ने समान नागरिकता का एक साझा प्रारूप तैयार किया है। इसी पर 22वें विधि आयोग में राय लेने का सिलसिला शुरू हुआ है। एक माह के भीतर इस प्रारूप पर विधि आयोग को सुझाव भेजे जा सकते हैं।
ऐसा कानून वजूद में आए जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू हो
संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत भी यही अपेक्षा रखते हैं कि समान नागरिकता लागू हो, जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाए जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घुमंतू जातियां भी इसके दायरे में आएंगी। केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार से यह उम्मीद ज्यादा इसलिए है, क्योंकि यह मुद्दा भाजपा के बुनियादी मुद्दों में शामिल है। उत्तराखंड राज्य सरकार अपनी समान नागरिक संहिता लाने में लगी है, वहीं भाजपा ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था।
वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परंपराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंतत:कानूनी असमानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम करते रहे हैं। इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं। इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं। संविधान के भाग-4 में उल्लेखित राज्य-निदेशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है।
समान नागरिक संहिता की डगर कठिन है | (Uniform Civil Code)
इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता है। किंतु यह प्रावधान विरोधाभासी है, क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-26 में विभिन्न धर्मावलंबियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं, जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता की डगर कठिन है। क्योंकि धर्म और मान्यता विशेष कानूनों के स्वरूप में ढ़लते हैं तो धर्म के पीठासीन, मंदिर, मस्जिद और चर्च के मुखियाद्ध अपने अधिकारों को हनन के रूप में देखते हैं। Uniform Civil Code
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग इस परिप्रेक्ष्य में यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों, मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा। जबकि यह परिस्थिति तब निर्मित हो सकती है, जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय नजरिया अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप दिया जाए, जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई संभव नहीं है। विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है, जहां एक धर्म के लोग रहते हों।
संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है (Uniform Civil Code)
भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मायने हैं कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट हो। इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति, बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता को बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है, किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है? इस दृष्टि से देश में समान दंड प्रक्रिया संहिता तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू है, लेकिन समान नागरिकता संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है।
अब कई सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जता रहे हैं। इसी मांग का परिणाम तीन तलाक का समापन है। मुस्लिमों में बहुविवाह पर रोक की मांग भी उठ रही है। यह अच्छी बात है कि शीर्ष न्यायालय ने भी इस मसले पर बहस और कानून की समीक्षा की जरूरत को अहम माना है। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि खुद मुस्लिम समाज के भीतर पर्सनल लॉ को लेकर बेचैनी बढ़ी है। ऐसे महिला और पुरुष बड़ी संख्या में आगे आए हैं, जो यह मानते है कि पर्सनल लॉ में परिवर्तन समय की जरूरत है। Uniform Civil Code
भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ है ‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ
इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम संगठनों की प्रतिनिधि संस्था आॅल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत ने भी अपील की थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाएं। इस्लाम के अध्येता असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ दरअसल ‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ’ है, जो फिरंगी हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए फैसलों पर आधारित है। लिहाजा इसे संविधान की कसौटी पर परखने की जरूरत है।
दरअसल देश में जितने भी धर्म व जाति आधारित निजी कानून हैं, उनमें से ज्यादातर महिलाओं के साथ लैंगिक भेद बरतते हैं। बावजूद ये कानून विलक्षण संस्कृति और धार्मिक परंपरा के पोषक माने जाते हैं, इसलिए इन्हें वैधानिकता हासिल है। इनमें छेड़छाड़ नहीं करने का आधार संविधान का अनुच्छेद-25 बना है। इसमें सभी नागरिकों को अपने धर्म के पालन की छूट दी गई है। दरअसल संविधान निर्माताओं ने महसूस किया था कि विवाह और भरण-पोषण से जुड़े मामलों का संबंध किसी पूजा-पद्धति से न होकर इंसानियत से है।
लैंगिक भेद को वर्तमान स्थिति से समझने की जरूरत
लिहाजा यदि कोई निस्संतान व्यक्ति बच्चे को गोद लेकर अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता है अथवा इससे उसे सुरक्षा बोध का अहसास होता है तो यह किसी धर्म की अवमानना कैसे हो सकती है ? यदि किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने के बाद उसे दरबदर भटकने की बजाय गुजारे भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमें उसका धर्म आड़े कहां आता है?
स्त्री-पुरुष के दांपत्य संबंधों में यदि समानता और स्थायित्व तय किया जाता है तो इससे किसी भी सभ्य समाज की गरिमा ही बढ़ेगी, न कि उसे लज्जित होना पड़ेगा ? लेकिन इस लैंगिक भेद को वर्तमान स्थिति से समझने की जरूरत है। हालांकि जैसे-जैसे धर्म समुदाय शिक्षित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे निजी कानून और मान्यताएं निष्प्रभावी होती जा रही हैं। पढ़े-लिखे मुस्लिम अब शरियत कानून के अनुसार न तो चार-चार शादियां करते हैं और न ही तीन बार तलाक बोलकर पति-पत्नि में संबंध विच्छेद बड़ी संख्या में हो पा रहे हैं।
समान नागरिक संहिता के प्रारूप को व्यापक राय-मशविरे की जरूरत
हिंदू समाज का जो पिछड़ा तबका शिक्षित होकर मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसने भी लोक में व्याप्त मान्यताओं से छुटकारा पा लिया है। कुछ मामलों में उच्च और उच्च्तम न्यायालओं ने भी ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं, जिनके चलते हरेक धर्मावलंबी के लिए व्यक्तिगत रूप से संविधान-सम्मत धर्मनिरपेक्ष कानूनी व्यवस्था के अनुरूप कदमताल मिलाने के अवसर खुलते जा रहे हैं।
बहरहाल समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक राय-मशविरे की जरूरत तो है ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली लोक-परंपराओं और मान्यताओं में समानताएं तलाशते हुए, उन्हें भी विधि-सम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है। ऐसी तरलता बरती जाती है तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन कानूनी विसंगतियों और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है, वे दूर हो जाएं?
प्रमोद भार्गव, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)