भारत (India) में मुठभेड़ में हत्याएं जारी हैं और सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच वर्षों में देश में ऐसी कुल 655 घटनाएं हुई हैं। भारत में मुठभेड़ में हत्या शब्द का प्रयोग 20वीं सदी के अंत से किया जा रहा है जिन्हें पुलिस या सशस्त्र बलों द्वारा कथित रूप से न्यायेत्तर हत्याएं माना जाता है और यह दावा किया जाता है कि यह कार्य आत्मरक्षा में किया गया। जब भी वे संदिग्ध गैंगस्टर्स या आतंकवादियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाते हैं तो यह दावा किया जाता है कि यह कार्य आत्मरक्षा में किया गया। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार जनवरी 2017 से लेकर जनवरी 2022 की अवधि के दौरान ऐसी कुल 655 घटनाएं हुई हैं और ऐसी सर्वाधिक 191 घटनाएं इस अवधि के दौरान छत्तीसगढ़ में हुई।
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राज्य (State) का कहना है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच अनेक बार संघर्ष देखने को मिला है किंतु हाल के समय में इसमें कुछ गिरावट आई है। हाल ही में गैंगस्टर्स से राजनेता बने अतीक अहमद और उनके भाई की तीन अन्य अपराधियों द्वारा हत्या बताती है कि हमारे समाज में अराजकता और हिंसा प्रतिदिन कितनी फैल गई है। हालांकि इस घटना को मुठभेड़ नहीं कहा जा सकता है किंतु इस घटना का बचाव भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनकी हत्या ऐसे समय पर की गई जब वे पुलिस के संरक्षण में थे। एक राज्य ऐसी घटना को चुपचाप देखता रहा जब हत्यारों ने उन्हें गोली मारी। साथ ही अतीक का बेटा असद जो उमेशपाल हत्या मामले में वांछित है, उसे झांसी में मुठभेड़ में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा मार दिया गया। उसके सहयोगी गुलाम को भी इसी मुठभेड़ में मारा गया। दोनों पर पांच लाख रुपए का इनाम था।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अतीक अहमद (Ateek Ahmed) कमारे जाने की उच्च स्तरीय जांच के आदेश दिए हैं। उन्होंने इस घटना की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय न्यायिक आयोग का भी गठन किया है। उत्तर प्रदेश में बड़ी सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। विपक्ष ने आरोप लगाया है कि राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति पूर्णत: धराशायी हो गई है। पुलिस मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुर्खियों में रहती हैं और कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिनकी ओर जनता का ध्यान लंबे समय तक गया है। जुलाई 2020 में उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर विकास दूबे को कथित पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। कानुपर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या में विकास दूबे मुख्य आरोपी था और जब उसे उज्जैन से वापस कानपुर लाया जा रहा था तो पुलिस मुठभेड़ में उसकी हत्या हुई और जिस वाहन में उसे लाया जा रहा था वह पलटा।
पुलिस (Police) के अनुसार दूबे ने भागने का प्रयास किया और पुलिस पर गोली चलाई। दिसंबर 2019 में तेलंगाना पुलिस ने हैदराबाद में एक वेटेनरी डॉक्टर के साथ सामूहिक बलात्कार और उसकी जलाकर हत्या करने के चार आरोपियों को मार गिराया। पुलिस ने कहा कि उसने आत्मरक्षा में गोली चलाई क्योंकि इन चारों आरोपियों ने भागने का प्रयास किया और पुलिस पर पत्थरबाजी की। इससे पूर्व सिमी के आठ लोग भोपाल केन्द्रीय कारागार से कथित रूप से बच निकले और बाद में अक्तूबर 2016 में राज्य पुलिस ने उन्हें मार गिराया।
उल्लेखनीय है कि न्यायालयों ने अनेक अवसरों पर ऐसी मुठभेड़ों को राज्य प्रायोजित आतंकवाद कहा है। किंतु मुठभेड़ के आलोचकों को एक प्रश्न का उत्तर देना चाहिए कि कोई राज्य हिंसा पर एकाधिकार का दावा कैसे कर सकता है। इसके लिए वह जवाबदेह है जबकि माफिया डॉन राज्य के भीतर राज्य चला रहे हों। पुलिस अधिकारियों को आत्मरक्षा या शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपराधियों को घायल करने या मारने का अधिकार है तथापि गलत इरादों या बेईमानी या व्यक्तिगत दुश्मनी अथवा लाभ के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए। यदि बल के प्रयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता और यदि ऐसी मौतें राष्ट्रीय मानव आयोग अधिकार के 2010 के दिशा निदेर्शों की श्रेणी में नहीं आती है तब यह एक अपराध होगा और पुलिस अधिकारी भारतीय दंड संहिता की धारा 299 की गैर इरादन हत्या का दोषी होगा और संबंधित पुलिस विभाग द्वारा उसके विरुद्ध अनुशासत्नामक कार्रवाई की जा सकती है।
हमारी दांडिक न्यायिक प्रणाली में उपयुक्त प्रावधान हैं फिर भी अनेक ऐसी मौतें होती हैं। सूचना के अधिकार के अंतर्गत क प्रश्न के उत्तर से पता चला है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने वर्ष 2000 और 2017 के बीच ऐसी 1800 फर्जी मुठभेड़ों को दर्ज किया है। फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में उत्तर प्रदेश शीर्ष स्थान पर है जहां ऐसे 45.55 प्रतिशत मामले दर्ज हुए हैं और मार्च 2017 से जून 2020 के बीच राज्य में छह हजार से अधिक मुठभेड़ों में 122 कथित अपराधी मारे गए।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 1997 में इस संबंध में दिशा निर्देश निर्धारित किए कि मुठभेड़ के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की जएगी और सूचना प्राप्त होने पर जांच की जाएगी। मृतक के आश्रितों को मुआवजा दिया जाएगा और यदि ऐसे पुलिसकर्मी उसी पुलिस स्टेशन के हैं तो ऐसे मामले में जांच किसी अन्य एजेंसी को दी जाएगी।
वर्ष 2010 में इन दिशा निर्देशों में संशोधन किया गया और इसमें मौत के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता 176 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट जांच को शामिल किया गया और ऐसी जांच तीन माह के भीतर किए जाने का प्रावधान किया गया। साथ ही मुठभेड़ में हुई मौतों की सूचना आयोग को देनी होगी। न्याय विशेषज्ञों की राय है कि मुठभेड़ में मौत अपराधियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार और उसे इन अधिकारों से संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से ही वंचित किया जा सकता है। यह अधिकार बिना किसी अपवाद के सभी व्यक्तियों को प्राप्त है और इसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच, विचारण भी शामिल है चाहे उस व्यक्ति ने जघन्य अपराध ही क्यों न किया हो और इस तरह अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार की रक्षा की जाए।
नि:संदेह कानून का शासन लागू किया जाना चाहिए और पुलिस कर्मियों को राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना इस संबंध में पूरी छूट दी जानी चाहिए। राज्य के पास कानून का शासन लागू करने की क्षमता है किंतु इसके मार्ग में राजनीतिक हस्तक्षेप आड़े आता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे राज्य अराजकता और हिंसा के लिए कुख्यात हैं। किंतु पश्चिम बंगाल जैसे अन्य राज्य भी हैं जो इनसे अलग नहीं है। वर्तमान में पूरे देश में व्याप्त प्रणाली दुखद स्थिति को दर्शाती है क्योंकि समाज में हिंसा और घृणा व्याप्त है। हम बदलाव की बात करते हैं किंतु ऐसा सामाजिक बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। साथ ही देश के अधिकतर लोगों को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। समस्या का दूसरा पहलू पुलिस की भूमिका और उन्हें प्रशिक्षण और पुलिस बल में सुधार की आवश्यकता है। सभ्य समाज में मुठभेड़ में मौत या पुलिस बल के समक्ष मौत रोकी जानी चाहिए।
धुर्जति मुखर्जी, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)