देश में बढ़ती नफरत को लेकर सर्वोच्च अदालत की बार-बार की टिप्पणियां अपने में काफी अहम हैं। Supreme Court की चिंता साफ-साफ टी.वी. डिबेट्स और दूसरे पब्लिक प्लेटफॉर्म्स के जरिए बेतुके और संवेदनशील मुद्दों पर असंवेदनशीलता की तरफ इशारा भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे घृणा फैलाने वाले भाषणों (हेट स्पीच) के विरुद्ध बिना किसी शिकायत के ही मामला दर्ज करें, जिसमें देरी करने को अदालत की अवमानना समझा जाएगा। न्यायालय ने धर्म के नाम पर होने वाली जहरीली बयानबाजी पर चिंता भी जताई। घृणा फैलाने वाले भाषण किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकते।
यह भी पढ़ें:– अभी और जलाएगी भीषण गर्मी की आग, राहत के नहीं कोई आसार
विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहां सभी धर्मों को बराबरी से फलने-फूलने का अधिकार है और हर व्यक्ति अपनी पसंद की पूजा पद्धति अपना सकता है। Supreme Court की बेंच एक अवमानना याचिका पर सुनवाई कर रही थी। बेंच ने महाराष्ट्र सरकार से शीर्ष अदालत के आदेशों के बावजूद हिंदू संगठनों द्वारा नफरत भरे भाषणों को नियंत्रित करने में विफल रहने के लिए उसके खिलाफ दायर अवमानना याचिका पर जवाब देने के लिए कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘धर्म को राजनीति से मिलाना हेट स्पीच का स्रोत है। राजनेता सत्ता के लिए धर्म के इस्तेमाल को चिंता का विषय बनाते हैं। इस असहिष्णुता, बौद्धिक कमी से हम दुनिया में नंबर एक नहीं बन सकते. अगर आप सुपर पावर बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको कानून के शासन की जरूरत है।’
दरअसल बीते कुछ वर्षों से ये देखने में आया है कि राजनीतिक और धार्मिक मंचों से इस तरह के भाषण दिए जाने लगे हैं जिनमें अन्य किसी धर्म के बारे में आपत्तिजनक और उत्तेजना फैलाने वाली बातें कही जाती हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश समयानुकूल है किन्तु उसका पालन करते समय ये देखना भी जरूरी है कि सम्बंधित राज्य सरकार घृणा फैलाने का आधार क्या तय करती है?
भारतीय राजनीति में जातिवाद तथा धर्म एक बड़ा कारक है
चूंकि हमारे देश में धर्म निरपेक्षता भी राजनीतिक लिहाज से परिभाषित होती है इसलिए एक भाषण जो राजस्थान में घृणा फैलाने वाला माना जाए उसे म.प्र की सरकार सामान्य माने तब क्या होगा ? और फिर सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश केवल सार्वजनिक मंचों से दिये जाने वाले भाषणों के इर्द गिर्द ही सीमित रहेगा जबकि असली घृणा तो उन धर्मस्थलों में होने वाले भाषणों से फैलती है जो न समाचार माध्यमों की नजर में आते हैं, न ही पुलिस और प्रशासन के। उसके बावजूद भी उसके निर्देश स्वागत योग्य हैं क्योंकि सार्वजनिक तौर पर कतिपय नेता और धर्मगुरु जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं वह निश्चित रूप से तनाव और विवाद का कारण बनती है।
हमारे यहां जब-तब स्वार्थ या लाभ की राजनीति की खातिर हेट स्पीच की घटनाओं से सामाजिक सामंजस्य बिगाड़ना लगभग आम सा हो चुका है। भारतीय राजनीति में जातिवाद तथा धर्म एक बड़ा कारक है। हमेशा देखा जाता है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण के चलते किसी विशेष समुदाय या जाति के तुष्टीकरण या निशाने के लिए ही अक्सर नफरती भाषा या हेट स्पीच या फिर ईशनिंदा कुछ भी कहें, की जाती है। सामान्यत: ईशनिंदा किसी धर्म या मजहब की आस्था का मजाक बनाना होता है जिसमें धर्म प्रतीकों, चिह्नों, पवित्र वस्तुओं का अपमान करना, ईश्वर के सम्मान में कमी या पवित्र या अदृश्य मानी जाने वाली किसी चीज के प्रति नफरती भाव या अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना होता है।
एक कड़वी सच्चाई भी कि बयान किसी के लिए नफरती हो सकता है तो किसी के लिए अभिव्यक्ति की आजादी। बस इसी महीन पेंच को लेकर तर्क-कुतर्क होते रहते हैं। लेकिन यह भी देखना चाहिए कि अपनी बात कहने की स्वतंत्रता की हद भी है और एकता व शांति भंग करने वाले बयानों पर पाबंदी भी। ऐसी बात, हरकत, भाव-भंगिमा, बोलकर, लिखकर, चित्रों, कार्टूनों के जरिए भड़की हिंसा के अलावा धार्मिक भावना आहत करना, किसी समूह, समुदाय के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थान और भाषा के आधार पर विद्वेष पैदा करने की आशंका या कुचेष्टा है जो हेट स्पीच के दायरे में है। एक सच्चाई यह भी है कि इसमें सहनशीलता की परीक्षा होती है। जनप्रतिनिधि और जनसामान्य किसी की बात को सहन कर पाते हैं और किसी की नहीं। बस यही फर्क है जिसके लोग अपने-अपने मायने लगा बैठते हैं कि बोलने की आजादी सबको है।
घृणा फैलाने वाले भाषणों पर बनें आचार संहिता | Supreme Court
माना कि लब बोलने को आजाद हैं लेकिन कैसे बोल के लिए? समाज को जोड़ने या तोड़ने वाले? उत्तर साफ है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में स्व. जवाहर लाल नेहरु और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख किया जिनका भाषण सुनने दूर-दूर से जनता आती थी और कभी भी उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें शालीनता का अभाव हो या किसी अन्य की भावनाओं को ठेस पहुँची। राजनेता तो घृणा फैलाने वाले भाषण देकर चुनावी लाभ ले लेते हैं किन्तु धार्मिक विभूतियों द्वारा अन्य धर्म के बारे में जहरीली टिप्पणी करना शोभा नहीं देता। लेकिन इस बारे में ध्यान देने वाली बात ये है कि कुछ धर्माचार्य परकोटे के भीतर अपने कुनबे को जमा कर जो जहर फैलाते हैं वह चूंकि सार्वजनिक तौर पर अनसुना रह जाता है इसलिए उस पर कार्रवाई करना असंभव है। और असली समस्या यही है। चूंकि राजनीतिक विमर्श में भी अब पहले जैसी सौजन्यता नहीं रही इसलिए भाषणों और वार्तालाप का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है।
ये देखते हुए घृणा फैलाने वाले भाषण और प्रवचन रोकने के लिए राजनीतिक दलों और धर्माचार्यों को अपनी तरफ से आचार संहिता बनानी चाहिए। यदि किसी दल का नेता सार्वजनिक मंच से घृणा फैलाने वाली बात कहे तो दलीय स्तर पर ही उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि उन बातों से अंतत: उस दल की छवि भी खराब होती है। इसी तरह धार्मिक मंचों से उत्तेजना फैलाने वाले प्रवचन देने वालों की संत समाज को आगे आकर निंदा करनी चाहिए क्योंकि समाज में सौहार्द्र का वातावरण अकेले कानून के बल पर नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए आत्मानुशासन की जरूरत है जो दुर्भाग्य से आजकल कम ही नजर आता है। इसके लिए हमारी राजनीतिक संस्कृति भी काफी हद तक जिम्मेदार है। हाल ही में उ.प्र और बिहार में कुछ राजनेताओं ने रामचरित मानस पर जो विवाद पैदा किया उसके पीछे भी विशुद्ध राजनीतिक लाभ लेने की मंशा थी।
मुट्ठी भर लोगों को देश का माहौल खराब करने की छूट नहीं दी जा सकती
एक जमाने में बसपा की ओर से सवर्ण जातियों के प्रति जिस तरह के नारे दीवारों पर लिखे जाते थे उनका उद्देश्य भी दलित मतों का धु्रवीकरण करना था। इसी तरह मनुस्मृति को जलाने जैसी हरकतों का मकसद भी घृणा फैलाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है। कुल मिलाकर बात ये है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने नेताओं और धमार्चार्य अपने धर्म के बारे में जितने संवेदनशील होते हैं उतना ही सम्मान दूसरे नेताओं और धार्मिक विभूतियों का भी होना चाहिए।
किसी सिरफिरे की आपत्तिजनक बातों पर सिर तन से जुदा जैसी बातें करने वाले मानसिक रोगी होते हैं इसलिए उनकी बातों को किसी धर्म विशेष से जोड़ने की बजाय देश विरोधी मानसिकता मानकर सामूहिक तौर पर उसका विरोध किया जाना चाहिए। इसी तरह किसी राजनेता द्वारा अन्य नेता या पार्टी के प्रति अशोभनीय बात कही जाने पर उसकी पार्टी ही उसकी खिंचाई करे तो राजनीतिक वातावरण शुद्ध हो सकता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अलावा ये समाज का भी दायित्व है कि वह घृणा फैलाने के किसी भी प्रयास की राजनीतिक और धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर निंदा करते हुए दोषी व्यक्ति का बहिष्कार करे क्योंकि मुट्ठी भर लोगों को देश का माहौल खराब करने की छूट नहीं दी जा सकती।
तारकेश्वर मिश्र, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)