करनाल के जोहड़ माजरा गाँव में मिले पुरातत्व महत्त्व के अवशेष
- टीले के नीचे से निकली प्राचीन ईंटें, मानव कंकाल, मृदभांड, खिलौने और अन्य सामान
करनाल (सच कहूँ/यशविंदर)। हरियाणा में कल्चर के नाम पर सिर्फ एग्रीकल्चर की कहावत अब पुरानी हो चुकी है। हरियाणा के समृद्ध और गौरवशाली इतिहास की परतें दिन-ब-दिन उघड़ रही हैं। हरियाणा प्रदेश का इतिहास कितना प्राचीन है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां पर ना केवल 6 हजार वर्ष पुरानी हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मिले हैं अपितु भिरड़ाना में दुनिया की सबसे प्राचीन मानव सभ्यता होने के प्रमाण भी मिल चुके हैं। इसके बावजूद इतिहास की कई परतें अभी भी यहां की धरती के नीचे दबी हुई हैं, जिन्हें खोज कर उनका विश्लेषण करना अभी बाकी है। इनके विश्लेषण से मानव विकास और उसके उद्भव के कई रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। अगर देर हुई तो इतिहास की यह निशानियां भू और खनन माफिया के लालच की भेंट चढ़ सकती हैं।
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ऐसा ही एक प्राचीन इतिहास करनाल के जोहड़ माजरा गांव में दबा मिला है, जहां करीब 50 एकड़ से अधिक भूमि में फैले टीले के नीचे से प्राचीन र्इंटें, मानव कंकाल, मृदभांड, खिलौने और अन्य सामान निकल रहे हैं। यह वस्तुएं किस काल की है यह तो पुरातत्व विभाग की जांच के बाद ही सामने आएगा। लेकिन बुजुर्गों और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों के अनुसार यह वस्तुएं सल्तनत काल की हो सकती हैं, जो 1200 से दो हजार साल तक जाता है। अगर पुरातत्व विभाग के दिशा निर्देशन में गहराई से इस साइट की खुदाई की जाए तो तो इतिहास का एक और पन्ना खुल कर सामने आ सकता है। जोहड़ माजरा गांव के टीले से प्राचीन वस्तुएं मिलने की सूचना पर श्री कृष्ण संग्रहालय की एक टीम गांव में पहुंची जहां टीम ने टीले और आस-पास खेतों में बिखरे सामान के अवशेष और साक्ष्य इकट्ठा किए।
राजपूत काल का होने की संभावना
इस टीम में इतिहासकार व पुरातत्ववेता डॉ. राजेंद्र राणा और श्री कृष्ण संग्रहालय कुरुक्षेत्र के इंचार्ज बलवान सिंह शामिल थे। उन्होंने यहां पर ग्रामीणों के साथ कुछ जगह खुदाई कर मृदभांड के टुकड़े, खिलौने, ईटें आदि इकठ्ठा की। टीम को मौके से एक बैल के आकार का मिट्टी का खिलौना भी मिला, जिसे उन्होंने अपने साथ रख लिया। पुरातत्व वेता डॉ. राजेंद्र राणा ने कहा कि यह काफी बड़े क्षेत्र में फैली पुरातात्विक साइट है। पहली नजर से देखने पर यहां जो सामान मिला है यह राजपूत काल का हो सकता है। बर्तनों की बनावट और र्इंटों के साइज से यह एक से 1500 साल पूर्व होने की संभावना है। कुछ मिट्टी के बर्तनों पर लाल रंग की चित्रकारी हुई है। उन्होंने कहा कि खुदाई वाले स्थान पर जमीन के नीचे रेत भी निकली है जिससे यह लगता है कि कभी यहां से यमुना का प्रवाह रहा होगा।
ईसा की पहली और दूसरी शताब्दी में यमुना के पास के जो स्थान थे ये व्यापार मार्ग थे। उस समय चीन से जो व्यापार होता था उसे सिल्क रूट कहा जाता है। उन्होंने कहा कि यह टीला बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है ऐसे में कई बार इसके अन्वेषण की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यहां जो ईंटें मिली है वह 5 सेंटीमीटर मोटी 31 सेंटीमीटर लंबी और 21 सेंटीमीटर चौड़ाई की है। इस के अलावा जो कसोरे मिले हैं उनका किनारा चाकू की नोक की तरह है, जो इसे 1000 से 1500 वर्ष पुराना घोषित करती है। श्री कृष्ण संग्रहालय कुरुक्षेत्र के इंचार्ज बलवान सिंह ने कहा कि पुरातात्विक साइट से मिले सामान के आधार पर इसे राजपूत काल की कहा जा सकता है। जो ईशा की पहली शताब्दी से सतरहवीं शताब्दी तक चला जाता है।
खनन माफिया न कर दे बर्बाद
वहीं ग्रामीण वेदपाल और अमन कुमार ने कहा की इस टीले की जांच होनी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां हमारे इतिहास को जान और समझ सके कि हमारी विरासत कितनी पुरानी और समृद्ध थी। उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे यह टीला खनन माफिया की भेंट चढ़ रहा है। कुछ लोग जेसीबी लगाकर यहां से मिट्टी ले जा रहे हैं, मिट्टी के साथ इतिहास की निशानियां भी खत्म होती जा रही हैं। अब सबकी नजरें सरकार और प्रशासन पर हैं कि कब वह इसकी सुध लेती है। लेकिन सबसे पहले इस प्राचीन खजाने की सुरक्षा के तत्काल बंदोबस्त किया जाना जरूरी है।
कभी बहती थी यमुना की धारा
टीले में ग्रामीणों द्वारा की गई खुदाई से यहां काफी गहरे खड्डे हो गए हैं। उन खड्डों में मिट्टी के नीचे से रेत निकल रही है, जिससे यह साबित होता है कि यहां कभी यमुना की अविरल धारा बहती थी। पुरातत्व वेत्ता डॉ. राजेंद्र राणा ने भी यहां पर यमुना के प्रवाह होने की पुष्टि की है। फिलहाल यमुना इस स्थान से करीब 15 किलोमीटर दूर बह रही है।
आर्य बाहर से नहीं आए थे : डॉ राजेंद्र राणा
इतिहासकार डॉ. राजेंद्र राणा ने राखीगढ़ी व अन्य स्थानों पर हुई खुदाई और वहां से मिले नर कंकालों के डीएनए टेस्ट के आधार पर यह दावा किया कि आर्य यूरोप अथवा कहीं बाहर से नहीं आए थे, वे यहीं के मूल निवासी थे। उन्होंने कहा कि राखीगढ़ी की सभ्यता 6 से 7 हजार वर्ष पुरानी है। यहां मिले कंकालों का डीएनए यूरोप के निवासियों से मैच नहीं करता। इन सभी का डीएनए इंडियन है। इससे पहले यह धारणा बनाई गई थी कि आर्य यूरोप से आए थे, जिन्होंने यहां आकर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, लेकिन हाल के शोधों ने इन सभी धारणाओं को निर्मूल साबित कर दिया है।
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