जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज ने 25 और 26 फरवरी को भारत की यात्रा की। दिसंबर 2021 में जर्मनी का नेतृत्व संभालने के बाद यह उनकी पहली भारत यात्रा थी। उनकी भारत यात्रा को दो कारकों ने प्रभावित किया। पहला, वर्तमान में जारी यूक्रेन युद्ध जो यूरोप तथा संपूर्ण विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है और दूसरा इस वर्षान्त भारत में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन। इसलिए शोल्ज की यात्रा की कार्य सूची में युद्ध के मद्देनजर रक्षा और प्रतिरक्षा आर्थिक सहयोग, ग्रीन प्रौद्योगिकी तथा हिन्द प्रशान्त रणनीति शामिल थे जिसका जी-20 सम्मेलन के दौरान वार्ता पर प्रभाव पड़ सकता है।
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अपनी यात्रा के उद्देश्यों के अनुरूप जर्मन चांसलर के साथ जर्मनी की 12 बड़ी कंपनियों तथा अन्य मध्यम तथा छोटी कंपनियों का एक व्यावसायिक शिष्टमंडल भी था। इसके अलावा बर्लिन में आयोजित छठे आईजीसी सम्मेलन में जिन मुद्दों पर चर्चा की गई थी, उन्हें आगे बढाना भी इस यात्रा का उद्देश्य था। यह यात्रा एक अन्य कारण से भी महत्वपूर्ण थी। युद्ध के कारण जर्मनी अपनी विदेश नीति का पुननिर्धारण कर रहा है और ऐसा लगता है कि एक बहुपक्षीय विश्व में भारत एक स्वतंत्र वैश्विक शक्ति के रूप में उभरना चाहता है। 27 वर्षीय यूरोपीय संघ में अपनी स्थिति को मजबूत करने के साथ साथ वह संपूर्ण विश्व में अन्य रणनीतिक साझीदारों के साथ भी संबंध प्रगाढ़ कर रहा है और भारत उनमें से एक हो सकता है। द्विपक्षीय दृष्टि से देखें तो जर्मनी भारत के लिए यूरोप का सबसे बड़ा निवेशक और विश्व का नौंवा सबसे बड़ा निवेशक है। वह भारत के शीर्ष दस वैश्विक साझीदारों में से भी एक है। यूरोप में जर्मनी के नेतृत्व के मद्देनजर जर्मन चांसलर ने भारत से वादा किया है कि वह भारत और यूरोपीय संघ के बीच व्यापार वार्ता को आगे बढ़ाएगा।
साझीदारी को सुदृढ़ करने के लिए जर्मन चांसलर ने भारत की नौसेना के आधुनिकीकरण में सहायता हेतु भारत में छह पनडुब्बियों के निर्माण की पेशकश की है। उन्होंने भारत के पेशेवर लोगों के जर्मनी आने के लिए एक नई प्रणाली बनाने की भी पेशकश की है। उन्होंने भारतवासियों के सपरिवार जर्मनी आने और वहां पर कार्य करने का स्वागत किया है। उन्होंने संकेत दिया कि नई प्रणाली पेशेवर लोगों के लिए कनाडा की प्रोफेशनल इमिग्रेशन पॉलिसी की तरह होगी। इस यात्रा का सुरक्षा की दृष्टि से महत्व भारत में जर्मनी के राजदूत फिलिप अकर्मे द्वारा यात्रा से पूर्व जारी वक्तव्य से स्पष्ट होता है। उन्होंने कहा कि जर्मन चांसलर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ भू राजनीतिक स्थिति पर वार्ता करेंगे।
वार्ता की कार्य सूची में रूस और यूक्रेन को महत्व दिया जाएगा। प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने से हमारा कोई सरोकार नहीं है। इसका निर्णय भारत सरकार को करना है। हम यह देखना चाहते है कि किसी न किसी स्तर पर इस मामले में भारत की साझीदारी हो। जर्मनी की इस चिंता को भारतीय नेतृत्व ने नजरंदाज नहीं किया है। युद्ध के कारण जर्मनी के हित और अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है और इसके कारण जर्मनी के राजकोष पर भारी बोझ पड़ा है जिसके चलते बिजली और र्इंधन की लागत बढ़ी है जिसके कारण जर्मन लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है।
भारत के दृष्टिकोण से यह युद्ध भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है। युद्ध के आगे बढ़ने के साथ-साथ रूस और चीन में निकटता बढ़ रही है और भारत को इस संदर्भ में चिंतित होना चाहिए क्योंकि भारतीय सीमा पर चीन ने आक्रामक रुख अपना रखा है। यूरोपीय संघ और अमरीका में भी चीन से व्यापार को अन्य देशों के साथ ले जाने पर विचार चल रहा है। यदि ऐसा है तो चीन का विकल्प केवल भारत का बड़ा बाजार ही हो सकता है और इस मामले में भारत और जर्मनी के हित एक जैसे हैं। क्या ऐसा होगा? भारत एशिया मे एक बड़ा देश है और जर्मनी पश्चिम में एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था है। लोकतंत्र, मानव अधिकार और नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में दोनों का एक जैसा दृष्टिकोण है। इसलिए इन दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंध बनने चाहिए। एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में इसकी जिम्मेदारी जर्मनी पर अधिक है। तथापि भारत के प्रति जर्मनी का दृष्टिकोण चीन के साथ जर्मनी के समीकरणों पर आधारित है।
जर्मनी बहुपक्षीयता में भी विश्वास करता है। शी जिनपिंग की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांगेस में पुन: पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने पर जर्मन चांसलर द्वारा चीन की यात्रा करने पर कुछ लोगों को हैरानी हुई। इस यात्रा का कारण यह बताया गया कि चीन में जर्मनी के भारी व्यापार और निवेश को बचाने के लिए यह एक मजबूरी है और यह जर्मनी के राष्ट्रीय हित में है। साथ ही चीन के बारे में एक सुनियोजित मूल्यांकन विदेश नीति और सुरक्षा नीति एजेंडा के बारे में एसपीडी के दस्तावेज में पाया गया हालांकि शोल्ज एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं किंतु वे गठबंधन के सबसे बड़े भागीदार एसपीडी के नेता है और यह जर्मनी की सबसे पुरानी लोकतांत्रिक पार्टी है।
इस नीतिगत दस्जावेत में कहा गया है चूंकि चीन ने रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले की निंदा नहीं की है इसलिए यह स्पष्ट है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन एक ऐसी वैश्विक शक्ति है जो विश्व राजनीति को अपने हित के अनुरूप निर्धारित करना चाहता है। इस दस्तावेज में कहा गया है कि चीन एक आत्मनिर्भर और कई बार आक्रामक रुख अपनाता है जैसा कि अक्सर अपने पड़ोसी देशों के भूभाग पर वह वर्चस्ववादी दावे करता है। जर्मनी ने अब तक चीन को साझीदार, प्रतिस्पर्धी और सुनियोजित प्रतिद्वंदी माना है। जर्मनी का कहना है कि चीन को एकदम अलग-थलग करना उचित नहीं है क्योंकि चीन अनेक वैश्विक चुनौतियों का मुकाबला करने में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक अपरिहार्य शक्ति बन गया है।
दूसरी ओर जर्मनी ने अपनी कंपनियों और यूरोपीय देशों की कंपनियों को कहा है कि वे अपनी वैल्यू चेन और सेल मार्केट का विविधीकरण करें, उन्हें वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता होना चाहिए और चीन पर अपनी आर्थिक निर्भरता कम करनी चाहिए। जर्मनी विश्व में तथा हिन्द प्रशान्त क्षेत्र में भी साझीदारों की तलाश कर रही है जहां पर भारत के हित निहित हैं। जर्मनी भारत सहित उन सब देशों के साथ संबंध बनाना चाहता है जिन्हें लगता है कि उन्हें चीन से खतरा है। इस दस्तावेज में कहा गया है कि हमें इन चिंताओं और भय को गंभीरता से लेना चाहिए और चीन के संदर्भ में नीति बनाते समय उन्हें ध्यान में रखना चाहिए तथा इसी स्थिति में भारत की भूमिका महतवपूर्ण बन जाती है।
भारत जर्मन संबंधों में एक अन्य मुख्य कारक नाटो के प्रति जर्मनी का दृष्टिकोण है हालांकि डोनाल्ड टंÑप के शासन के दौरान नाटो को लेकर और यूरोपीय संघ तथा अमेरिका के बीच संबंधों में दरार आई थी किंतु बाइडेन शासन ने इस बात की पुन: पुष्टि की है कि अमरीका और नाटो अभी भी यूरोप की सुरक्षा की गारंटी देता है इसलिए शोल्ज प्रशासन नाटो पर निर्भर रहते हुए भी यूरोपीय संघ की सैनिक क्षमता सुदृढ़ करना चाहता है। भारत को अपना सुरक्षा एजेंडा निर्धारित करते समय अमरीका और यूरोप की साझीदारी के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। बहुपक्षीयता के संबंध में जर्मनी इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि विश्व दो परस्पर विरोधी गुटों में बंटा हुआ है।
जर्मनी का मानना है कि वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए बहुपक्षीय प्रयासों की आवश्यकता है। विश्व को विभाजित कर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता है। एक न्यायपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण के संबंध में जर्मनी ग्लोबल साउथ देशों की भागीदारी के वैध दावे को स्वीकार करता है। यूरोपीय संघ भी एक बहुपक्षीय निकाय है इसीलिए जर्मनी और यूरोपीय देश वैश्विक शांति, समृद्धि और सुरक्षा के लिए बहुपक्षीय संस्थाओं में विश्वास करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में भारत का भी ऐसा ही दृष्टिकोण है इसलिए अवधारणा के स्तर पर बहुपक्षीयता को बढ़ावा देने के लिए भारत और जर्मनी को मिलकर कार्य करना चाहिए।
मैंने इस स्तंभ में लिखा है कि एकजुट विश्व ही वास्तविक बहुपक्षीयता है। किंतु इतिहास इस बात को पुष्ट नहीं करता है। शक्ति संतुलन अधिक व्यावहारिक है। तथापि मानव जाति से जुड़ी घटनाएं अत्यधिक जटिल हैं और वे समय-समय पर नई वास्तविकताओं का निर्माण करते हैं। इसलिए यदि भारत और जर्मनी बहुपक्षीयता को बढ़ावा देना चाहते हैं तो यह स्वागत योग्य है और इस संबंध में उन्हें और अधिक सुदृढ़ता से कदम उठाने चाहिए।
डॉ. डीके गिरी वरिष्ठ लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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