(सच कहूँ न्यूज) जी-20 की अध्यक्षता ग्रहण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुंह से यह सुनते हुए प्रसन्नता हुई कि यद्यपि इतिहास में मानवता हमेशा अभाव में जीती रही है, हम सीमित संसाधनों के लिए संघर्ष करते रहे क्योंकि हमारा अस्तित्व अन्य लोगों को उन संसाधनों से वंचित करने पर निर्भर रहा। विचारों, विचारधाराओं और पहचान के बीच टकराव तथा प्रतिस्पर्धा आम बात बन गई है। दुर्भाग्यवश आज भी हम इसी मानसिकता से जकडे हुए हैं। हमने देखा है कि विभिन्न देश प्रादेशिक भूभाग और संसाधनों के लिए लड़ते हैं।
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प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि आज हमारे पास विश्व के सभी लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त उत्पादन करने के साधन हैं और अस्तित्व के लिए संधर्ष करने की आवश्यकता नहीं है। यह टिप्पणी सैद्धांतिक रूप से सही लगती है किंतु व्यावहारिक रूप से सही नहीं है क्योंकि विकासशील देशों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा रहा है और इन देशों में भुखमरी से मौतें आम बात है। भारत में भी लोगों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है क्योंकि देश में व्यापक गरीबी है और लोग कुपोषण तथा भुखमरी के शिकार बन रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की विभिन्न रिपोर्ट इस तथ्य को बताती हैं। विश्व के सभी देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। इस संबंध में विकास के संबंध में आप महात्मा गांधी की बुनियादी आवश्यकताओं के दृष्टिकोण को उद्धृत कर सकते हैं जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि विकास से निर्धनतम लोगों के लिए पर्याप्त भोजन और न्यूतनम जीवन स्तर निश्चित होना चाहिए। दुर्भाग्यवश आर्थिक उदारीकरण के कारण भारत में मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ किंतु वह गरीब तथा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के उत्थान में विफल रहा क्योंकि आत्मनिर्भरता, जमीनी स्तर पर विकास तथा ग्रामीणोन्मुखी दृष्टिकोण का अनुसरण नहीं किया गया।
पूर्ववती सरकारों की तरह मोदी का यह सुखाभास देश में विकास की तस्वीर के अनुरूप नहीं है क्योंकि राजग सरकार अमीर लोगों की पक्षधर लगती है। भाषण बड़े उत्साहवर्धक होते हैं किंतु जमीनी स्तर पर गरीबों की दशा में सुधार नहीं दिखाई देता है। वर्तमान बजट में भी ग्रामीण क्षेत्र के लिए संसाधनों के आवंटन में कमी इस बात का प्रमाण है। सरकार गरीब और अमीर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों तथा संगठित क्षेत्र के कामगारों के बीच बढ़ती विषमता को नजरंदाज कर रही है।
प्रधानमंत्रत्री द्वारा एक और बिंदु पर बल दिया गया? कुछ लोग कह सकते हैं कि टकराव और लालच मानव प्रकृति है किंतु उन्होनें इस सोच का विरोध किया। अपने विचार के समर्थन में उन्होंने मानव जाति द्वारा लाई गई आध्यात्मिक परंपराओं का उल्लेख किया। अनेक भारतीय राजनेता अंतर-राज्य विवादों के समाधान के लिए हिसां या युद्ध का मार्ग अपनाने की बजाय कूटनीति, वार्ता और बातचीत का रास्ता अपनाने पर बल देते हैं। किंतु मोदी ने विभिन्न देशों के बीच युद्ध के कारणों के संबध में अपने विचार व्यक्त किए और कहा कि अतीत में जो युद्ध के कारण थे वे प्रौद्योगिकी विकास के कारण अब लागू नहीं होते हैं।
यह वास्तव में एक प्रशंसनीय टिप्पणी है किंतु दूसरी ओर उनकी सरकार ने रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण की आलोचना नहीं की है। शायद भारत द्वारा इस संबंध में साहसिक रूख न अपनाने के मार्ग में आर्थिक कारक आड़े आए। उल्लेखनीय है कि आर्थिक कारकों के अलावा ऐतिहासिक भूलों को दूर करने की इच्छा भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है। समानता की राजनीतिक स्वीकृति के बावजूद उत्कृष्टता की सामाजिक धारणा को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है और इसके कारण ही विभिन्न देशों के बीच टकराव होता है। भारत में यह प्रवृति वर्तमान में दिखाई दे रही है क्योंकि वर्तमान सरकार इतिहास को पुन: लिखने की प्रक्रिया में है तथा मुगलों के गलत कार्यों को सुधारना चाहती है जिसके चलते विभिन्न समुदायों विशेषकर हिन्दू और मुसलमानों के बीच हिंसा हो रही है और इससे हमारा सामाजिक ताना-बाना तथा जीवन प्रभावित हुआ है और विकास की प्रक्रिया बाधित हुई है।
जाति वोट प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दलों के लिए हमेशा एक महत्वपूर्ण कारक रहा है और अब वर्तमान शासक राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का दोहन कर रहा है। यह भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष तथा विकासशील देश के लिए अच्छा नहीं है। इसलिए भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान रणनीति जमीनी स्तर पर विकास के लिए हानिकर है और इससे समाज का निर्धनतम वर्ग सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। उल्लेखनीय है कि ग्राम सभाओं जैसे जमीनी स्तर से जुड़ी संस्थाओं में सभी वर्गों की आवाज नहीं सुनी जाती है। बहुसंख्यक, जो अधिकतर उच्च जाति के होते हैं, वे इन समुदायों को दबाना चाहते हैं और उनकी वास्तविक मांगों को नजरंदाज करते हैं।
सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए अति राष्ट्रवाद और अन्य विचारधाराएं निरर्थक हैं। ऐसी स्थिति में हालांकि हमारे राजनेता देश की उपलब्धियों की बातें करते हैं किंतु गरीब और हाशिए पर गए समुदायों के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। इस संबंध में प्रोफेसर रणवीर समादार की हाल में प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख करना आवश्यक है जिसमें कहा गया है कि परिवार धार्मिक समुदायों, सगे संबंधियों और कार्य स्थल पर एकजुटता का वर्तमान नेटवर्क कमजोर हुआ है, राज्य का हस्तक्षेप कम हुआ है और इसका मुख्य कारण वैश्वीकरण के चलते अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण बढ़ा है और इसलिए गरीब और अमीर के बीच विषमता अत्यधिक बढ़ी है और सरकार की नीति में बदलाव न होने के कारण आगामी वर्षों में यह और बढ़ेगी।
तथापि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सरकार के विभिन्न उपायों से मध्यम वर्ग लाभान्वित हुआ है। किंतु गरीब तथा विशेषकर देश के पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। मोदी सरकार के दौरान अमीर और शक्तिशाली वर्ग को अधिक लाभ हुआ है और इसका उदाहरण गौतम अदानी हैं और उनसे जुड़ा हाल का विवाद इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार ऐसे उद्योगपतियों को सरकार से लाभ मिला है।
हाल के वर्षों में संपूर्ण देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है और इससे जुड़े लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़े राजनीतिक दलों और राजनेताओं से जुड़े रहे हैं। अर्थशास्त्री इसे क्रोनी पूंजीवाद और जमीनी स्तर पर लोगों के बारे में सोचे बिना देश के विकास के लिए भौतिकवाद के पश्चिमी मॉडल का अनुसरण कहते हैं। समाज को मूल्य प्रणाली चला रही है तथा युवा पीढ़ी का एक अनिश्चित भविष्य है। रोजगार का अभाव, बिगड़ता सामाजिक वातावरण, समाज में भ्रष्टाचार, हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना आदि ने स्थिति को और उलझाया है। देश की अधिक जनसंख्या विकास के लिए एक चुनौती है किंतु सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि किस तरह गरीब लोगों को जीवन और कार्यकलापों की मुख्यधारा में लाया जाए और इस संबंध में बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
धुर्जति मुखर्जी वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)
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