अटलांटिक महासागर के ऊपर उड़ रहे चीन के सर्विलांस बैलून को नष्ट कर दिए जाने के बाद चीन-अमेरिकी संबंधों में तनाव का नया दौर शुरू हो गया है। सर्विलांस बैलून को नष्ट कर दिए जाने की घटना से चीन इस कदर आहत हुआ है कि उसने वाशिंगटन को अंजाम भुगतने की धमकी दे दी है। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैसी पेलोसी के ताइवान दौरे के बाद चीन-अमेरिकी रिश्तों में कड़वाहट का जो दौर शुरू हुआ है, वह चीन-अमेरिकी संबंधों के इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गया हंै। पेलोसी के ताइवान दौरे को लेकर भी चीन अमेरिका को भारी कीमत चुकाने की धमकी दे चुका है। चीन का कहना है कि अमेरिका के इस कदम से चीन-अमेरिकी रिश्ते गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुए हैं।
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कोई दो राय नहीं कि चीन-अमेरिकी संबंधों में चल रही तनातनी के बीच बैलून प्रकरण ने एक तरह से आग में घी डालने का काम किया है। सवाल यह है कि रूस-यूके्रन युद्ध और ताइवान मसले के बाद चीन-अमेरिका संबंधो पर बैलून प्रकरण के साइड इफेक्ट किस रूप में सामने आएंगे। पूरे घटनाक्रम का बारीकी से विश्लेषण करें तो साफ तौर पर कहा जा सकता है कि अमेरिकी सुरक्षा बलों द्वारा बैलून को गिराए जाने के बाद जिस तरह से चीन की ओर से प्रतिक्रिया आई है, वह आवश्यकता से अधिक कठोरता लिए हुए है। बड़ी सामान्य सी बात है कि अमेरिका या किसी दूसरे प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र का गुब्बारा चीन की हवाई सीमाओं में प्रवेश कर जाता तो चीन की क्या प्रतिक्रिया होती।
क्या उसकी पीपल्स लिब्रेशन आर्मी चुपचाप उसे चीनी आसमान में उड़ते हुए देखती रहती। हालांकि, चीन बार-बार सफाई दे रहा था कि यह मौसम संबंधी जानकारियां जुटाने वाला सामान्य गुब्बारा है, जो हवा के बहाव की वजह से अमेरिकी सीमा में चला गया लेकिन इसे मार गिराए जाने के बाद जिस तरह की तल्ख प्रतिक्रिया चीन की ओर से आई है, उससे इन आशंकाओं को बल मिलता है कि निसंदेह बैलून का मकसद कुछ ओर ही था। बैलून चाहे जासूसी के मकसद से अमेरिकी सीमाओं में आया हो या रास्ता भटकने के कारण लेकिन इसने चीन-अमेरिकी रिश्तों की सामान्य होती प्रकिया पर जरूर पानी फेर दिया है!
सच तो यह है कि पिछले एक दशक में चीन-अमेरिकी संबंध लगातार तल्ख हुए हैं। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में कारोबारी युद्ध के चलते दोनोें देशों के रिश्ते प्रभावित हुए। साल 2021 में राष्ट्रपति जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद भी रिश्तों में तल्खीयत बनी रही। हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल से दोनों बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच तनाव के नए मोर्चें खुल गए। रूस-यूके्रन युद्ध को लेकर भी अमरीका की भृकुटियां तनी हुई हैं। ताइवान के मोर्चें पर भी चीन के आक्रामक रुख ने दोनों देशों के रिश्तों को सामान्य नहीं होने दिया।
लेकिन इन सबके बावजूद कूटनीति अपना काम करती रही और धीरे-धीरे रिश्तों पर जमी बर्फ के पिघलने के आसार दिखने लगे थे। पांच साल बाद अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के चीन जाने का कार्यकम तय हुआ लेकिन बैलून प्रकरण ने ब्लिंकन के दौरे की भी हवा निकाल दी है। हालांकि, इस बात की संभावना बहुत कम थी कि ब्लिंकन के दौरे से रसालत में जा चुके चीन-अमेरिका संबंधों में कोई बहुत बड़ा परिर्वतन होने वाला था लेकिन ब्लिंकन का दौरा हो पाना ही अपने आप में एक बड़ी बात होती।
शत्रु देशों की खुफिया व रणनीतिक जानकारी प्राप्त करने में जासूसी गुब्बारों के प्रयोग किए जाने का इतिहास काफी पुराना रहा है। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान 1794 में आॅस्ट्रीयन और डच सैनिकों के खिलाफ फनेरस की लड़ाई में पहली बार जासूसी गुब्बारों का इस्तेमाल किया गया। 1861 से 1865 के बीच अमेरिकी नागरिक युद्ध के दौरान भी जासूसी गुब्बारों के इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जासूसी गुब्बारों का प्रयोग किया गया था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान ने बम ले जाने वाले गुब्बारे छोड़े थे। इनमें से कई अमेरिका और कनाडा तक पहुंचे थे। युद्ध में जापानी सेना ने इन गुब्बारों के जरिए अमेरिकी क्षेत्र में बमबारी की कोशिश की थी। हालांकि, इनकी सीमित नियंत्रण क्षमताआें की वजह से अमेरिका के सैन्य निशानों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था लेकिन कई बम रिहायशी क्षेत्रों में गिरे थे जिनकी जद में आने से कई आम नागरिकों की जानें चली गई थीं। शीतयुद्ध के दौरान सोवियत संघ और अमेरिका द्वारा ऐसे गुब्बारों का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन आज सैटेलाइट युग में भी जासूसी बैलून का प्रयोग काफी दिलचस्प है।
सच तो यह है कि सर्विलांस बैलून खुफिया जानकारी एकत्र करने का सबसे विश्वसनीय और सस्ता तरीका है। एडवांस कैमरे से युक्त होने के कारण यह बैलून क्लोज-रेंज यानी पास की निगरानी के लिए बेहद उपयुक्त होते हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि यह सैटेलाइट के मुकाबले ज्यादा आसानी से और ज्यादा देर तक किसी इलाके को स्कैन कर सकते हैं। 24000 से 37000 फीट की ऊंचाई पर उड़ सकने में सक्षम होने के कारण जमीन से इनकी निगरानी करना बेहद मुश्किल होता है। चीन का जासूसी गुब्बारा जो अमेरिका के आसमान में उड़ रहा था उसकी क्षमता 60 हजार फीट थी।
कोई दो राय नहीं कि अपनी विस्तारवादी नीति के तहत चीन सैन्य व रणनीतिक मोर्चें पर विभिन्न गतिविधियों को अंजाम दे रहा है । पिछले कुछ समय से उसकी सर्विलांस गतिविधियों में भी तेजी से इजाफा हुआ है। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि जब चीन अमेरिका की जासूसी के लिए इसका इस्तेमाल कर सकता है तो फिर भारत के लिए क्यों नहीं। चीन के साथ भारत लंबी सीमा साझा करता है। ऐसे में चीन का सर्विलांस बैलून भारत की सुरक्षा चिंताओं के लिए भी गंभीर चुनौती बन सकता है। लद्दाख और डोकलाम विवाद के बाद यह चुनौती और अधिक बढ़ गई है।
पिछले दिनों भारत के पोर्ट ब्लेयर में भी ऐसा ही बैलून देखा गया था। हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई थी लेकिन माना जा रहा है कि वह भी चीन का ही जासूसी गुब्बारा था। अगस्त 2022 में भी चीन श्रीलंका के हंबनटोटा पोर्ट पर अपना सबसे खतरनाक जासूसी जहाज यूआन वांग-5 भेज चुका है। ऐसे में भारत को न केवल चीन की चालाकियों पर नजर रखनी होगी बल्कि समान सोच वाले देशों के साथ मिलकर ठोस रणनीति बनानी होगी।
डॉ. एन.के. सोमानी, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के निजी विचार हैं)
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