मन चाहता है कि जीव सतगुरू की भक्ति में आगे न बढ़े। यह चाहता है कि विषय-भोगों में सोया ही रहे परंतु आत्मा के लिए थोड़ा खाना, थोड़ा सोना, रात को जागना, मन के साथ लड़ाई करना सुखदायक है, अन्यथा भजन करना बड़ा मुश्किल है।
मन काल का वकील है जो काल द्वारा हर जीव के साथ लगा दिया गया है। इस दुनिया में जो कुछ हम कर रहे हैं, सब मन के अधीन होकर कर रहे हैं। खाना-पीना, दोस्तों से मिलना, नए संबंध स्थापित करना, पाप-पुण्य, जप-तप, कर्म-धर्म, कौमी-मजहब बखेड़े, ये सब काम मन के हैं। असल में हम मालिक की नहीं मन की पूजा करते हैं। इसका काम जीव को भरमाना, भटकाना और संसार में उलझाना है। जीव अगर भक्ति भी करे तो भी उसके दायरे (त्रिलोकी) से बाहर नहीं निकल पाता। जब संत सतलोक से आकर आत्मा को अपने घर वापिस जाने का उपदेश देते हैं, पहले तो वह (मन) उपदेश सुनने ही नहीं देता। अगर कोई उपदेश सुनकर अपने निजघर जाने का रास्ता अपनाता है तो यह सख्त विरोध करता है, इसको ठीक रास्ते पर चलने नहीं देता।
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सुमिरन के समय मन झट बाहर भटकने लगता है, सुमिरन छोड़ बैठता है और अभ्यासी को काफी देर तक इस बात का पता ही नहीं चलता। अत: अपने मन के ऊपर निगरानी रखनी चाहिए। इसको फिर वापिस लाएं। इसी प्रकार लगातार अभ्यास के साथ मन थक जाता है और स्थिर हो जाएगा।
मन भजन बंदगी नहीं करने देता है। इस मन की चालों से बचो। जैसे कुम्हार बर्तन आवे (भट्टी) में पकाता है, ऐसे ही वह तुम्हें पकाएगा। सतगुरू की तरफ जाने नहीं देगा।
मन को कभी भी खाली न रखो, सेवा करो, भजन सुमिरन या किसी को नेक उपदेश दो। इसे किसी न किसी काम में लगाए रखो। मन कभी भी खाली नहीं बैठता। अगर अच्छा काम नहीं करेगा तो बुरा जरूर करेगा।
चौबीस घंटों में कुछ समय ऐसा भी निर्धारित होना चाहिए, जिसमें केवल मन की दशा पर विचार किया जाए कि वह किस तरह की तरंगें उठाता है और तरंगों का रूख किधर है?
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