जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार में आपसी विचारों का मतभेद एक फिर से चर्चा का विषय बन हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति को लेकर देरी और केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजुजू के बयान पर आपत्ति जताते केवल इतना कहा है कि उनको (मंत्री) को यह नहीं कहना चाहिए था। स्पष्ट है कि अदालत ने इस मामले को तरकार में बदलने से बचा लिया है लेकिन साथ ही साथ अदालत द्वारा यह कहना कि जजों की नियुक्ति संबंधी आयोग न बनने के चलते सरकार में नाराजगी है, जिस कारण जजों की नियुक्ति को लटकाया जा रहा है। भले ही माननीय जजों ने मंत्री की भाषा पर अपनी नाराजगी को बहुत ही संयम के साथ रखा है, लेकिन यह घटनाक्रम कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पैदा हुई किसी दरार को दर्शाता है।
वास्तविकता में मंत्री ने जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम की तुलना एक एलियन से कर दी थी। अप्रत्यक्ष शब्दों में मंत्री की तरफ से कहा गया कि न्यायपालिका कॉलेजियम की प्रक्रिया के तहत संविधान से अलग संस्था बन गई है। उनके कहने का भाव कॉलेजियम का रूतबा कार्यपालिका को कम आंकना है। वास्तविकता में पूर्व सरकार के समय केन्द्र सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए संविधान में संशोधन कर राष्टÑीय न्यायिक भर्ती आयोग की स्थापना की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच ने रद्कर दिया था। इसी तरह जजों की नियुक्तियां और तबादले कॉलेजियम प्रणाली से ही होते आ रहे हैं। कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति किए जाने के बाद कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा स्वीकृति दे दी जाती है, लेकिन अब कुछ जजों की नियुक्ति डेढ़ वर्ष से मंत्रालय के पास अटकी हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति संबंधी देरी के लिए सरकार पर निशाना साधा है।
नि:संदेह कार्यपालिका और न्यायापालिका दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैैं, जिन्होंने देश को चलाना है। इस मामले का हल संयम और गंभीरता के साथ निकाला जा सकता है ताकि किसी भी तरीके की तरकार से बचा जा सके। विवाद, बयानबाजी और तकरार से न केवल समय की बर्बादी होती है बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को भी ठेस पहुंचती है। रंजिश और राजनीतिक उलझनों से बचकर संविधान की मर्यादा को बरकरार रखा जाना होगा। सरकार और न्यायपालिका के अधिकार और कार्य क्षेत्र अलग-अलग हैं, लेकिन कानून और संविधान की रक्षा के लिए दोनों पक्षों को पूरी जिम्मेवारी और संविधान की रौशनी में आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
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