अभी कुछ दिन पहले अमेरिका में वित्त मंत्री ने एक प्रश्न के जवाब में कहा कि (dollar vs rupee ) भारत का रुपया गिर रहा है, बोलने की जगह सही तथ्य है कि डॉलर मजबूत हो रहा है। इसके बाद सोशल मीडिया पर उनके इस बयान पर ट्रोल की बाढ़ आ गई। डॉलर मजबूत या रुपया कमजोर के विमर्श में सबसे पहले यह जानना जरुरी है कि रुपए का अवमूल्यन और रुपये के कमजोर होने में क्या अंतर् है। अवमूल्यन किसी अन्य मुद्रा या मुद्राओं के समूह या मुद्रा मानक के सामने किसी देश के रुपए के मूल्य का जानबूझकर नीचे की ओर किया गया समायोजन है। जिन देशों में मुद्रा की एक स्थिर विनिमय दर या अर्ध-स्थिर विनिमय दर होती है, वे इस तरह की मौद्रिक नीति का इस्तेमाल करते हैं। इसे अक्सर आम लोगों द्वारा रुपए का मूल्यह्रास समझ लिया जाता है। अवमूल्यन स्वतंत्र नहीं होता इसका निर्णय बाजार नहीं, किसी देश की सरकार लेती है। यह रुपए के कमजोर होने जिसे मुद्रा का मूल्यह्रास भी कहते हैं की तरह गैर-सरकारी गतिविधियों का परिणाम नहीं बाकायदा सरकार द्वारा विचारित और निर्णीत होता है।
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वहीं मुद्रा का मूल्यह्रास एक मुद्रा के मूल्य में, उसकी विनिमय दर बनाम अन्य मुद्राओं के संदर्भ में गिरावट को संदर्भित करता है। मुद्रा का मूल्यह्रास बाजार आधारित होता है इसलिए यह बुनियादी आर्थिक स्थिति, आयात निर्यात और चालू खाता, ब्याज दर के अंतर, मुद्रा स्फीति, विदेशी मुद्रा का भंडार और प्रवाह, राजनीतिक अस्थिरता, या निवेशकों के बीच जोखिम से बचने जैसे कारकों के कारण हो सकता है। जिन देशों की आर्थिक बुनियाद कमजोर होती है , पुराना चालू खाता घाटे में चला आ रहा होता है या मुद्रास्फीति की उच्च दर होती है उन देशों की मुद्राओं में आम तौर पर मूल्यह्रास होता रहता है।
भारत में एक दशक में पहली बार, अमेरिकी डॉलर 2022 की पहली छमाही में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया और उसके मुकाबले रुपए का मूल्य गिरकर एक डॉलर के मुकाबले 82 रुपए तक पहुंच गया। कोरोना के बाद हम संभल रहे थे तभी यूक्रेन युद्ध , कच्चे तेल की कीमतें बढ़ी, ग्लोबल मंदी की आहट, अमेरिका के फेडरल बैंक ने ब्याज दर बढ़ाना शुरू किया, विदेशी निवेशक पैसा डॉलर सम्पत्तियों में ब्याज दर बढ़ने से उसके रिटर्न रेट बढ़ने के कारण पैसा भारत से निकाल वहां लगाने लगे तो अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये कमजोर होता चला गया। देश पहले से ही उच्च मुद्रास्फीति से जूझ रहा था, अब रुपये की यह गिरावट भी परेशान कर रही है। इसीलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो कहा, “रूस-यूक्रेन युद्ध, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थितियों के सख्त होने जैसे वैश्विक कारक डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने के प्रमुख कारण हैं तथा “ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन और यूरो जैसी वैश्विक मुद्राएं भारतीय रुपये की तुलना में अधिक कमजोर हुई हैं, जिसका मतलब है भारतीय रुपया 2022 में इन मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है” ठीक ही कहा। इन बड़ी इकोनॉमी के अलावा भारत की तुलना में पाकिस्तान बांग्लादेश और श्रीलंका की मुद्राएं तो और तेजी से गिरी हैं, यहां तक कि चीन की अर्थव्यवस्था भी डांवाडोल हुई है।
कुछ चुनिंदा देशों के अलावा डॉलर इंडेक्स की भी तुलना करते हैं। डॉलर इंडेक्स पौंड, यूरो एवं येन सहित दुनिया की 6 प्रमुख देशों की मुद्राओं के एक बास्केट के मुकाबले अमेरिकी डॉलर के सापेक्ष मूल्य को व्यक्त करता है। यदि सूचकांक बढ़ रहा है, तो इसका मतलब है कि डॉलर बास्केट के मुकाबले मजबूत हो रहा है। 18 अक्टूबर 2021 को 6 प्रमुख मुद्राओं के डॉलर इंडेक्स का मूल्य 94 था जो आज 112 है।
अमेरिकी फेडरल रिजर्व दर जो फरवरी 2022 में शून्य थी वह अब 3.25 फीसदी हो गई है। अमेरिकी बैंकों को दैनिक आधार पर यूएस फेडरल बैंक के लिए एक निश्चित राशि बनाए रखने की आवश्यकता है। वे दूसरे बैंक से ऋण लेते रहते हैं और उस ऋण पर ब्याज दर को फेडरल ब्याज दर कहा जाता है। जब फेडरल बैंक उस ब्याज दर में वृद्धि करता है तो दुनिया के सभी निवेशक, अपने वर्तमान निवेश से पैसा निकालते हैं और यूएस फेड बैंक में निवेश करते हैं क्योंकि यह सबसे सुरक्षित निवेश माना जाता है। इस फेडरल बैंक में केवल यूएसडी में निवेश हो सकता है, मतलब यूएसडी की मांग बढ़ गई। अब यूएसडी की मांग बढ़ने से यूएसडी की कीमतें बढ़नी लगती हैं, जो फिलहाल फेडरल बैंक द्वारा दर बढ़ाने के कारण हो रहा है। अब सवाल उठता है फेडरल क्यों ऐसा कर रहा है, तो जबाब है भारत की तरह वह भी ब्याज दर बढ़ा महंगाई नियंत्रित करना चाहता है। जैसे-जैसे ब्याज दर अधिक होती है लोग बैंकों में जमा बढ़ा देते हैं, निवेश करना शुरू हो जाता है और कर्ज और क्रेडिट कार्ड महंगा हो जाता है लोग कर्ज लेकर खर्च करना कम कर देते हैं जिस कारण बाजार में मुद्रा का प्रचलन कम हो जाता है, मांग कम हो जाती है और कीमत कम हो जाती है। अब यहां जो डॉलर मजबूत हो रहा है उसका कारण हमारा आंतरिक नहीं है एक बड़ा कारण फेडरल बैंक की नीतियां हैं।
इसलिए उनकी बात सही भी है कि भारत में जो डॉलर के मुकाबले रुपया गिर रहा है यह रुपए का अवमूल्यन नहीं, यह सापेक्षिक गिरावट है जिसे रुपए का मूल्य ह्रास कहते हैं। यह मुद्रा बाजार की परिस्थितियों के कारण हुआ है। इस बाजार में ऐसा नहीं है कि रुपया कमजोर हो गया है, यह तो दुनिया की करेंसी में से एक करेंसी के ज्यादा मजबूत होने के कारण बाकी सब अपने आप कमजोर हो जाते हैं। हर देश की विशिष्ट आर्थिक परिस्थिति होती है उसकी खुद की बुनियादी आर्थिक विशेषता होती है, ब्याज दर होता है, राजनीतिक स्थिरता अस्थिरता होती है, निवेशकों के जोखिम के विशिष्ट कारक होते हैं ऐसे में इन देशों का मूल्य ह्रास उनकी अपनी इस विशिष्टता के कारण अलग अलग हो रहा है इसीलिए इस मुद्रा के उथल पुथल में भारत का रुपया भले ही डॉलर के मुकाबले कमजोर दिख रहा हो लेकिन अन्य देशों के स्वतंत्र मूल्य ह्रास के कारण उनके सापेक्ष मजबूत भी हुआ है। इसलिए यह केवल गिरावट नहीं है रुपया कई देशों के मुकाबले मजबूत भी हुआ है जैसा कि वित्त मंत्री ने अपने भाषण में जिक्र किया। इसलिए इसे सिर्फ एक कोण से नहीं देखा जाना चाहिए, बहुआयामी दृष्टिकोण लगाना पड़ेगा।
भारत जैसा विकासशील देश ज्यादातर तेल, गैस, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स, हैवी मशीनरी, प्लास्टिक आदि के मामले में आयात पर निर्भर करता है और इसका भुगतान अमेरिकी डॉलर में करना पड़ता है। रुपये के मूल्य में गिरावट के साथ, देश को पहले की तुलना में उसी वस्तु के लिए उसी डालर मूल्य के मुकाबले अधिक भुगतान करना पड़ता है। इससे कच्चे माल और उत्पादन लागत में वृद्धि होगी जिसकी अंतत: ग्राहकों पर ही मार पड़ेगी। आयात से लिंक हर चीजें प्रभावित होंगी। हालांकि कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात को बढ़ावा देती है क्योंकि विदेशी खरीददार की डॉलर में क्रय शक्ति बढ़ जाती है लेकिन कमजोर वैश्विक मांग और लगातार अस्थिरता के मौजूदा परिदृश्य में इसका लाभ भारत को मिलता नहीं दिख रहा है। इस बीच देश के विदेशी मुद्रा भंडार में भी गिरावट आई है, देश का व्यापार घाटा भी बढ़ा है। रुपये को संभालने के लिए आरबीआई ने खुले मार्किट में डॉलर की बिक्री भी की है, लेकिन अभी तक इसका कोई अधिक प्रभाव दिख नहीं रहा है।
सरकार इसे वैश्विक कारक बोलकर पल्ला नहीं झाड़ सकती या डॉलर बेच या ब्याज दर बढ़ा मुकाबला नहीं कर सकती क्योंकि अन्तत: यह ऋण भी महंगा कर देता है । यदि अपना घर मजबूत होता तो ऐसी डॉलर की मजबूती की आंधियां हमारे रुपए को प्रभावित नहीं कर पाती। यदि हम आयात को कम कर दें यहां तक कि निर्यात ज्यादा हो जाए या दोनों आसपास हो जाएं, पेट्रोल और गैस पर निर्भरता कम कर इलेक्ट्रिक, एथेनॉल, ग्रीन हाइड्रोजन, सौर और परमाणु ऊर्जा के प्रयोग से अपना तेल और गैस बिल कम कर दें, आत्मनिर्भर भारत मेक इन इंडिया पर तेजी से काम करें, डॉलर का आॅउटफ्लो कम कर इनफ्लो पर काम करें, देशों से रुपए या अन्य मजबूत मुद्राओं में सौदे सेटलमेंट की बात करें तब जाकर हम अमेरिकी डॉलर को विश्व बाजार में नियंत्रित कर सकते हैं, नहीं तो वैश्विक मान्य करेंसी के रूप में उसकी मांग हमेशा बनी रहेगी और बेहतर करने के बावजूद भी किसी अन्य कारण से उसकी मांग बढ़ गयी तो हमारी सारी मेहनत धरी की धरी रह जायेगी और रुपया गिर जायेगा। इसलिए देशों को डॉलर को एकाधिकारी मुद्रा से बाहर लाना होगा।
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