पाँच राज्यों में अगली विधानसभा के लिए मतदान का दौर अब पूरा हो चुका है, ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि करोड़ों का खर्च करके और महीनों के थकाऊ प्रचार अभियानों के बाद चुनकर आई विधानसभाएं आखिर काम कितना करती हैं। इस बारे में उपलब्ध आंकड़ों से जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, उसे उत्साहजनक तो कई नहीं कहा जा सकता। इसके मुताबिक, पिछले एक दशक में ज्यादातर विधानसभाओं का सालाना औसत बमुश्किल 30 दिन बैठता है, जो लोकसभा के सालाना औसत (63 दिन) से काफी कम है। लेकिन लोकसभा का भी यह औसत तब बहुत कम लगने लगता है, जब हम अन्य देशों पर नजर डालते हैं। अमेरिका में प्रतिनिधिसभा का साल 2020 में 163 दिन और 2021 में 166 दिन कामकाज का रिकॉर्ड रहा, जबकि सीनेट का दोनों साल 192 दिनों का।
ब्रिटेन में हाउस आॅफ कॉमंस की 2020 में 147 बैठकें हुर्इं, हालांकि पिछले दस सालों में उसका सालाना औसत 155 दिनों का है। साफ है कि अपने देश में हालात विकसित देशों की तुलना में काफी खराब हैं। हालांकि किसी खास साल में विधायका की कम बैठकों के पीछे कोई विशेष परिस्थिति हो सकती है। उदाहरण के लिए, 2020 और 2021 में महामारी ने इन बैठकों को प्रभावित किया। राज्यों के संदर्भ में राष्ट्रपति शासन जैसी मजबूरियां भी किसी खास साल में इन बैठकों की संख्या कम कर देती हैं। लेकिन बात किसी खास साल की है ही नहीं। अपने देश में विधानसभाओं की कम बैठकें स्थायी प्रवृत्ति की तरह बनी हुई हैं, जो दशकों के औसत में सही ढंग से उभर कर आती हैं।
कई बड़े राज्यों में इसमें सिलसिलेवार गिरावट का ट्रेंड दिखता है। उदाहरण के लिए, यूपी में साठ के दशक से अस्सी के दशक तक जो सालाना औसत 47 दिनों का था, वह सदी के अंत तक आते-आते 30 दिन हो गया और अब महज 22 दिन है। ऐसे ही तमिलनाडु में 1955 से 75 के बीच सालाना बैठकों का जो औसत 56 दिनों का था, वह 1975 से 1999 के बीच घटकर 51 हुआ और 2000 के बाद की अवधि में 37 दिन पर आ गया है। हालांकि इन आंकड़ों के साथ कई तरह का अधूरापन भी जुड़ा हुआ है। एक तो यह कि बैठक कितने घंटे चली इसका ब्योरा इसमें शामिल नहीं है। चाहे कार्यवाही दो-तीन घंटे में स्थगित हो गई हो या पूरे दिन चली हो, उसे एक बैठक माना गया है।
दूसरी बात यह कि विधायक या जनप्रतिनिधि का काम सिर्फ विधानसभा की बैठक में शामिल होना नहीं होता। तीसरी बात यह कि बैठकों की संख्या से यह पता नहीं चलता कि बैठक में हुई चर्चा के विषय कैसे थे और उन विषयों पर हुई चर्चा कितनी महत्वपूर्ण या फलप्रद थी। मगर इन सीमाओं के बावजूद विधायिका के कामकाज के घंटों का सिमटते जाना इनकी अहमियत में गिरावट का संकेत है, जिसे गंभीरता से लेना चाहिए। अब नेताओं को जनता के खून पसीने की कमाई की कद्र करनी चाहिए और देश, प्रदेश और जनता के हित के मुद्दों पर फोकस करना चाहिए।
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