चुनाव आयोग ने देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर 31 जनवरी तक चुनावी रोड शो और रैलियों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी है। लेकिन घर-घर वोट मांगने वालों की संख्या 5 से 10 कर दी गई है। चाहे यह कोविड प्रोटोकोल ही है लेकिन चुनाव आयोग के नए निर्देशों का पश्चिमी मॉडल सामने आ रहा है। पांचों राज्यों की जनता इस बात से खुश है कि इस बार फालतू का शोर-शराबा और भीड़ कम हुई है। रैलियों और रोड शो के कारण जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। बाजारों में जाम जैसी स्थिति बनी रहती है। सड़कें जाम होने के कारण मरीजों को भी परेशानी आती है। इन चीजों को यूरोपीय देश बहुत पहले ही समझ चुके हैं और उन्होंने चुनावी प्रचार के तौर-तरीकों को बदल लिया है। खास कर संचार तकनीक का इन देशों में भरपूर प्रयोग किया जाता है। पश्चिमी देशों ने रेडियो और टैलीविजन से प्रचार का काम लिया है। अब तो और भी आसान हो गया है क्योंकि सोशल मीडिया की पहुंच बहुत अधिक बढ़ चुकी है और आम आदमी भी स्मार्ट फोन लेकर चलता है।
देश की 100 करोड़ के करीब जनता इंटरनेट का प्रयोग कर रही है तो इससे भी संचार की कोई कमी नहीं रह गई है। सीधा संपर्क यूं भी खर्चीला और समय की बर्बादी होता है। बड़ी रैलियों पर पैसा भी बर्बाद होता है। भारतीय राजनीति पुराने अंदाज को बदलने के लिए तैयार नहीं लेकिन कोविड की मजबूरी के कारण पाबंदियों को मानना ही पड़ेगा। अभी भी एक-दो पार्टियां बड़ी रैलियां करने की चाह्वान हैं। कुछ भी हो परिस्थितियों को समझना चाहिए और तकनीक का प्रयोग बढ़चढ़ कर करना चाहिए। जो समाज या देश नई परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है, वह तरक्की करता है। भारतीय राजनेताओं को भी रैलियों को ही वास्तविक प्रचार मानने की खर्चीली और थकाऊ व्यवस्था से निकलकर प्रगतिवादी नजरिये के साथ काम करना चाहिए। यूं भी जीत मुद्दों के हल के भरोसे पर टिकी होती है ।
अगर राजनेताओं या दलों के पास कोई मुद्दा या जनता की सेवा के लिए प्रतिबद्धता नहीं तब बड़ी रैलियां भी रास नहीं आती। पंजाब, हरियाणा सहित कई राज्यों का इतिहास रहा है, जब बड़ी रैलियां करने के बावजूद पार्टियों को हार मिली। अगर रैलियां ही सफलता का राज होतीं तो पैसे वाले उम्मीदवार यकीनी तौर पर जीतते। मुद्दों के कारण कम पैसे वाले लोग भी चुनाव जीतते आए हैं। देश में बढ़ रही आबादी के कारण पहले ही बाजारों की भीड़ एक बड़ी विकट समस्या है। शहरों में पार्किंग तक नहीं बची है। अत: देश की परिस्थितियों और कोविड महामारी से सीख लेने की सख्त आवश्यकता है। चुनाव प्रचार में सूचना तकनीक का सहारा लिया जाए।
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