विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में मलेरिया के पहले टीके के उपयोग को मंजूरी दी है। लंबे इंतजार के बाद तैयार हुआ यह टीका मलेरिया की घातक प्रजाति प्लाज्मोडियम फाल्सिपेरम के लिए विकसित किया गया है। भले ही इस प्रजाति का अफ्रीका में बहुत ज्यादा फैलाव है, पर भारत में भी इसका प्रकोप कम नहीं है। बीते वर्ष हमारे देश में मलेरिया के जो मामले दर्ज हुए हैं, उनमें दो तिहाई मामले फाल्सिपेरम के ही हैं। वर्ष 2020 में, भारत में मलेरिया के दर्ज कुल 1.86 लाख मामलों में से 1.19 लाख फाल्सिपेरम के थे। इस वर्ष जुलाई तक देश में मलेरिया के दर्ज कुल 64.5 हजार मामलों में 44.3 हजार मामले फाल्सिपेरम के हैं।
भारत में फाल्सिपेरम की व्यापकता को देखते हुए यह टीका भारत के लिए भी लाभदाक साबित होगा। हां यह सच जरूर है कि एक समय देश में मलेरिया का जितना प्रकोप होता था, उतना अब नहीं है। लेकिन गरीब क्षेत्रों, घनी बस्ती वाले इलाकों और खासकर आदिवासी इलाकों में जहां वन क्षेत्र ज्यादा हैं, वहां अभी भी इसका प्रकोप बरकरार है। अभी यह टीका शून्य से पांच वर्ष के वैसे बच्चों को लगाया जायेगा जिन्हें पहले मलेरिया हो चुका है। वो भी उन इलाकों में जहां इनका प्रकोप ज्यादा है यानी उच्च बोझ वाले क्षेत्रों में। इस टीके को स्थानिक क्षेत्रों में देने की सिफारिश की गयी है, ऐसे में यह छोटे समूह के लिए ही उपलब्ध होगा, सभी को नहीं मिलेगा।
मलेरिया की दवाइयां उपलब्ध हैं, जिसे लोग ले सकते हैं। समस्या वहां है जहां मलेरिया की दवाइयों की लोगों तक पहुंच नहीं है। गरीब आबादी के साथ यह समस्या अभी भी बनी हुई है। आज भी कई दूर-दूराज के क्षेत्र ऐसे हैं, जहां लोगों की मलेरिया की दवाइयों तक पहुंच नहीं है या मरीजों की देखभाल की व्यवस्था का अभाव है, जैसे हमारे आदिवासी क्षेत्रों या अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में, वहां इस टीके से लोगों को ज्यादा मदद मिलेगी। हालांकि टीके को लेकर कुछ रिस्क भी होगा, जैसे किसी को उल्टी होगी, किसी को सिरदर्द होगा।
तो वो सब मामूली बात है। कुल मिलाकर कहा जाये, तो टीके का विकसित होना भारत के लिए एक अच्छी खबर है, क्योंकि अपने यहां मलेरिया अभी भी एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। लेकिन हम इसकी तुलना कोविड के टीके से नहीं कर सकते। कोविड टीका इतनी जल्दी इसलिए तैयार हुआ, क्योंकि उसकी बहुत ज्यादा मांग थी और अमीर लोग भी इसके शिकार हो रहे थे। किसी भी टीके के विकास के पीछे दो कारक होते हैं- एक पुश फैक्टर।
यानी सरकार निजी क्षेत्रों के साथ मिलकर अनुसंधान एवं विकास में ज्यादा पैसा लगायेगी, तो अनुसंधान और विकास में तेजी आयेगी। दूसरा है पुल फैक्टर। यानी धनी देश में टीके का बाजार हो तो कंपनियों को इसके निर्माण एवं विकास के लिए प्रोत्साहन मिलता है। मलेरिया में ये दोनों ही कारक गायब हैं। क्योंकि यह गरीब देशों और गरीब लोगों की बीमारी है।