तब पाकिस्तान में भी धूमधाम से मनाया जाता था दशहरा पर्व
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बालकृष्ण खत्री ने सांझा किए संस्मरण
सच कहूँ/संजय मेहरा, गुरुग्राम। वह भी समय था, जब आज के हिन्दुस्ताान की तरह तब पाकिस्तान में भी तीज-त्यौहार खुशियों के साथ मनाए जाते थे। दशहरे के पर्व पर भव्य मेला लगता था। गांव मंगरोठा का दशहरा बहुत ही प्रसिद्ध होता था। जैसे ही 1947 में बंटवारे की आग लगी तो सब पीछे छूट गया। सब पर्व इतिहास हो गए। यह कहना है बंटवारे के समय बचपन में ही पाकिस्तान से भारत पहुंचे बाल कृष्ण खत्री का।
बाल कृष्ण खत्री का जन्म तौंसा शरीफ में हुआ था। वैसे तो वे बहुत छोटे थे, लेकिन उस समय की यादें उनके जह्न में आज भी घूमती हैं। जब भी बंटवारे से पहले व बंटवारे का जिक्र होता है तो वे बिना रुके, बिना थके पूरी हकीकत विस्तार बता देते हैं। बाल कृष्ण खत्री आज उम्रदराज हो चुके हैं। वे बताते हैं कि पाकिस्तान में तौंसा शरीफ के चार मोहल्ले-पोआदी बस्ती, पचादी बस्ती, उभा बेड़ा और लम्हा बेड़ा बड़े प्रसिद्ध थे। वे पोआदी बस्ती में रहते थे। उनके आसपास कई खत्री परिवार रहते थे।
बाल कृष्ण खत्री के पिता जी की मुख्य बाजार में परचून की दुकान थी। वह बलूचिस्तान में रहकर तौंसा शरीफ आए थे। उन्होंने अच्छे स्तर पर परचून की दुकान की शुरूआत की। ख्वाजा निजामुद्दीन के कारण उनका नगर बहुत प्रसिद्ध था। उनकी बहुत बड़ी दरगाह थी। दूर-दूर से तीर्थ यात्रा करने लोग आते थे। बाल कृष्ण खत्री कहते हैं कि ख्वाजा साहब हिन्दुओं से भी बहुत प्रेम करते थे। इसलिए शहर को तौंसा शरीफ कहा जाता है। अजमेर शरीफ का तौंसा शरीफ से संबंध था। खत्री बताते हैं कि उनके शहर में एक बहुत बड़े हकीम भी होते थे, जिनका नाम हकीम ऊधों दास था। उस समय के वे बहुत ही प्रसिद्ध हकीम थे और दूर-दूर से लोग उनके पास अपना मर्ज लेकर आते थे और ठीक होकर जाते थे। उनके शहर में रामलीला भी होती थी, जो हकीम ऊधों दास ही कराते थे।
आर्य समाज हाई स्कूल भी था प्रसिद्ध
उनके नगर में ही एक आर्य समाज हाई स्कूल भी था, जिसे संस्कृत एंग्लोवैदिक स्कूल के नाम से जाना जाता था। बहुत अच्छी पढ़ाई उस स्कूल में होती थी। उनके नगर के लोग दशहरा देखने के लिए साथ में लगने वाले गांव मंगरोठा में जाते थे। वहां का दशहरा पर्व बहुत ही प्रसिद्ध होता था। उनके मामा का घर साथ लगते गांव घाली में था, जो खत्रियों का था। उनके यहां प्रसिद्ध दुकानदार नारायण दास भाटिया, आसानंद, मनोहर लाल, आसा मनोहर थे। जीवन दास स्वर्णकार, त्रिलोकचंद नारंग आदि का नाम भी बहुत प्रसिद्ध था। वहां आपस में बहुत प्यार और एक दूसरे के सुख-दु:ख में शामिल होने का एक तरह से रिवाज था। जीवन सभी का सुखमय चल रहा था।
बंटवारे में किसी की जान गई, किसी ने मौत नजदीक से देखी
एकाएक जब बंटवारे की आग लगी तो सभी ने बहुत कुछ खोया। किसी की सांसें थमीं तो जिसकी बची वे रोज मौत को नजदीक से देखते थे। जब दंगे भड़के तो ख्वाजा निजामुद्दीन ने आगे आकर उनके परिवार को बचाया। दंगाइयों से साफ कहा कि उनकी तरफ कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता। वे उनके रक्षक हैं। अंतत: वहां से निकलकर भारत में पहुंचे। घूमते हुए आखिर गुरुग्राम में बसेरा बनाया और यहां परिवार को मेहनत-मजदूरी करके बड़ों ने स्थापित किया। उन्हीं बुजुर्गों की ही कड़ी मेहनत से आज तीसरी पीढ़ियां सुखमय जीवन व्यतीत कर रही हैं।
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