सच कहूँ/संजय मेहरा
गुरुग्राम। अक्सर हम सबने खेतों में, तालाबों में, उनके किनारे पर बगुलों को बहुत ही शांत स्वभाव से बैठे देखा है। इस स्वभाव के बीच वे अपना पेट भरने के लिए नजरें शिकार पर रखते हैं। जानवरों के साथ इंसानों के भी बहुत करीब रहने वाला यह पक्षी बहुत खूबसूरत भी होता है। जो गुरुग्राम (गुड़गांव) में देश-दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है, ये बगुले भी इस ओर आकर्षित हैं। आप हैरान होंगे कि दिनभर आपके निकट रहने वाला
यह पक्षी सांझ ढलते ही हरियाणा के गुरुग्राम का रुख कर लेता है। गुरुग्राम का धरमपुर गांव बगुले के प्रजनन और रात्रि विश्राम के लिए सबसे उपयुक्त स्थल है। शाम को पूरे हरियाणा से हजारों बगुले इस जगह पहुंचते हैं। यहां बबूल के पेड़ इन बगुला पक्षियों से इस तरह ढके होते हैं, जैसे कि पेड़ों पर एक सफेद चादर बिछा दी गई हो। रात्रि विश्राम के बाद सुबह जल्दी ही ये पक्षी भोजन के लिए विभिन्न दिशाओं में उड़ान भर जाते हैं। सुबह लगभग 6.30 बजे ये बबूल (देसी कीकर) के पेड़ बगुलों की अनुपस्थिति में स्पष्ट रूप से बंजर दिखाई देते हैं।
महानगरीय प्रजाति है बगुला
बगुला पक्षी एक महानगरीय प्रजाति है, जो हरियाणा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में व्यापक रूप से फैली हुई है। यह एक सफेद पक्षी है, जो आमतौर पर जलाशयों के पास पेड़ों की सूखी शाखाओं से चपटा घोंसला बनाता है। मवेशी बगुले अन्य 64 बगुले प्रजातियों की तुलना में बेहतर तरीके से झाड़ीदार अर्द्ध-सूखे पेड़ों की चोटी पर आवास करते हैं। दलदल, खेतों, राजमार्ग किनारों, मौसमी रूप से जलमग्न घास के मैदानों, चरागाहों, आर्द्रभूमि और चावल के खेतों, जुताई वाले खेतों और अन्य परिवर्तित आवासों के आसपास मवेशी बगुले सामान्य दिखाई देने वाला पक्षी है। इनमें से वयस्क बगुले अत्यधिक प्रवासी हैं और हजारों मील की दूरी तक फैल सकते हैं।
ये स्थल बगुलों के बसने के अनुकूल नहीं
प्रो. राम सिंह, प्रसिद्ध पर्यावरण जीव विज्ञानी (पूर्व निदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन और प्रमुख, कीट विज्ञान विभाग, सीसीएस हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार) ने भिंडावास बर्ड सेंचुरी, सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान के साथ-साथ अरावली जैव विविधता पार्क का भी दौरा किया। इन स्थानों में ऐसे उपयुक्त स्थल उपलब्ध नहीं थे। उन्होंने नजफगढ़ क्षेत्र के जलग्रहण क्षेत्रों जैसे शिकारपुर, टिकरा, कांगनहेड़ी, नानाखेड़ी, मोहम्मदहेड़ी, दौलताबाद, धनवापुर, बजघेड़ा, बाबूपुर, धनकोट, बसई आदि के आसपास के कई गांवों का भी दौरा किया। बाबूपुर गांव में तालाब के किनारे बबूल के पेड़ों का एक समूह है, लेकिन पेड़ पूरी तरह से हरे हैं।
वे एक वास्तविक गुच्छा नहीं बनाते, बगुलों के जो घोंसले और बसने के लिए उपयुक्त हो। मनुष्यों और अन्य शिकारी जानवरों से अनुचित अशांति से बचने के लिए पेड़ भी नीचे पानी के बिना अधिक ऊंचाई पर मौजूद थे। कई गांवों में काबुली या विलायती कीकर पेड़ बड़ी संख्या में हैं। इन्हें भी बगुले घोंसले या बसने के लिए कभी पसंद नहीं करते।
मानव के हित में जैव विविधता संरक्षण जरूरी
प्रोफेसर सिंह का कहना है कि 50 से 60 साल पहले की तरह पूरे प्रदेश में तालाबों के किनारों पर देसी कीकर के पेड़ लगाकर राज्य भर में ऐसे किसान हितैषी पक्षी की जैव विविधता को बनाए रखने के लिए सरकार संज्ञान ले। मानव जाति के हित में भी जैव विविधता को पुनर्स्थापित और संरक्षित करना अत्यंत आवश्यक हैं। देसी कीकर पक्षियों के रहने के लिए बहुत ही उपयुक्त पेड़ होता है। क्योंकि ये देसी कीकर कई तरह के पक्षियों का निवास होती हैं। हम अपने बचपन के दौर में झांककर देखें तो हमें संस्मरण होगा कि शाम के समय किस तरह से पेड़ों पर पक्षियों की चहचहाट होती थी। सांझ ढलते ही पक्षी पेड़ों की तरफ रुख कर लेते थे। या तो वे घोंसलों में या फिर पेड़ों की टहनियों पर ही विश्राम करते थे। हम यूं कह सकते हैं कि ये पक्षी भी हमारी संस्कृति का एक हिस्सा होते थे, जो बदलते परिवेश में लुप्त होते जा रहे हैं।
खेतों में ट्रैक्टर के पीछे भी कीड़ों को खाते हैं बगुले
मवेशी बगुले आमतौर पर झुंड में चारा चरने वाले जानवरों से जुड़े होते हैं, और उनके परजीवी खाते हैं। वे ट्रैक्टर या लॉनमूवर का भी पीछा करते हैं जो कीड़ों और अन्य शिकार की प्रतीक्षा कर बाहर निकालते ही खा जाते हैं। वे अपेक्षाकृत बड़े कीड़ों, विशेष रूप से टिड्डे, क्रिकेट, मक्खियों और पतंगों के साथ-साथ मकड़ियां, मेंढक, केंचुआ, सांप और कभी मछली का भी शिकार करते हैं।
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter, Instagram, LinkedIn , YouTube पर फॉलो करें।