पर्यावरण और मौसम विषेशज्ञों की सलाह और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों के सुझाव पर केंद्र और राज्य सरकारों ने बाढ़ की विकट समस्या के समाधान के लिए कोई इच्छाशक्ति दिखाई हो, अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। मानो, बाढ़ एक तरह से पारंपरिक आपदा बनती जा रही है, इस बार भी देश के तमाम क्षेत्रों में बारिश के कारण तबाही का मंजर देखने को मिला। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में बादल फटने, पहाड़ों के टूट कर गिरने और जमीन धंसने जैसी घटनाओं में जान-माल का खासा नुकसान हुआ। उधर, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, असम जैसे राज्यों में भी अनुमान से परे बारिश के तेवर चौंकाने वाले रहे। राजस्थान के कोटा, बारां, जोधपुर सहित बारह जिलों में पंद्रह दिन तक निरंतर बारिश हुई। इससे खरीफ की फसल लगभग बर्बाद हो चुकी है।
इस साल देश के ज्यादातर हिस्सों में बारिश जैसी तबाही मचा रही है, उससे तो लगता है कि अब बरसात से पैदा होने वाली परिस्थितियां कई मामलों में पहले के मुकाबले काफी बदल चुकी हैं। सवाल है कि क्या इन प्राकृतिक हादसों को जलवायु परिवर्तन का परिणाम मान कर बैठ जाएं या फिर इनका मुकाबला करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाएं? समझने वाली बात यह है कि पर्वतीय राज्यों में बाढ़ ने जिस प्रकार से कहर ढाया और देखते ही देखते हजारों लोगों व लाखों जीव-जंतुओं को अपनी चपेट में ले लिया, उससे अब बदलते ऋतु चक्र से डर लगने लगा है। पहले ऐसी घटनाएं लोगों में दहशत पैदा नहीं करती थीं, जिससे लोगों को अपने पुश्तैनी घर छोड़ कर सुरक्षित ठिकानों की ओर पलायन को मजबूर होना पड़े। जिस महाराष्ट्र के ज्यादातर इलाकों में पिछले कई सालों से जहां अकाल की स्थिति बनी हुई थी, वहां बरसात ने रिकार्ड तोड़ दिए। कुछ ऐसी ही स्थिति मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार और असम की बन गई है।
बिहार, असम, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और कमोवेश मध्यप्रदेश में बाढ़ हर साल लाखों लोगों को उजाड़ देती है। बड़े पैमाने पर जन और धन की हानि होती है। हर साल जैसे ही मानसून आता है, निचले इलाकों में पानी भरने लगता है। सरकारी खजाने से राहत के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। यह आवंटित राशि बाढ़ में कहां बह जाती है, कोई पूछने वाला नहीं। हर साल यह कहा जाता है कि बाढ़ का स्थायी समाधान किया जाना चाहिए, लेकिन इसे कभी भी अमल में नहीं लाया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव होने की वजह से बाढ़ की समस्या बढ़ती जाती है। यहां हैरानीजनक पहलू यह है कि सरकारें देश के बाढ़ प्रबंध विशेषज्ञों की राय को अमल में लाकर इसका स्थायी समाधान करने की बात तो करती है, लेकिन उनके सुझावों पर कभी अमल करती नहीं दिखतीं।
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