पिछले कुछ दिनों से ओबीसी और इससे जुड़े मुद्दों पर सियासत फिर चर्चा में आ गई है। इसका असर राजनीतिक दलों के अंदर संगठन और नेतृत्व पर भी पड़ने लगा है। सभी दलों के अंदर ओबीसी नेताओं की पूछताछ होने लगी है। संगठन में ओबीसी की हिस्सेदारी बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। साथ ही, ओबीसी वोट को प्रभावित करने वाले छोटे-छोटे दलों को भी अपने पक्ष में करने के लिए तमाम बड़े राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल अचानक सक्रिय हो गए हैं। सभी दलों का आकलन है कि 2024 में जिस सियासी टीम में जितने मजबूत ओबीसी उम्मीदवार होंगे, उसे उतना ही लाभ मिलेगा और वह चुनावों में अच्छा प्रदर्शन कर सकेंगे।
ओबीसी नेतृत्व को अपने पाले में करने की कोशिश का असर चुनावी राज्यों में भी दिखने लगा है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को भी अपनी पुरानी सियासी गलती का अहसास हो रहा है। मुलायम सिंह यादव के समय ओबीसी का बड़ा तबका समाजवादी पार्टी के साथ था, लेकिन बाद में इसमें यादव और गैर-यादव ओबीसी के बीच दूरी बढ़ती गई और एसपी का यह वोट छिटक कर बीजेपी के पास चला गया। बीजेपी ने मौका देखकर 2017 में गैर-यादव ओबीसी का तकरीबन सारा वोट अपने पक्ष में कर लिया और बड़ी जीत हासिल की। इस बार अखिलेश यादव ओबीसी की इन छोटी-छोटी जातियों के बीच खोया जनाधार पाने के लिए इनके नेताओं तक पहुंच बना रहे हैं। उधर, बीजेपी अपनी पकड़ किसी भी सूरत में कम करने को तैयार नहीं है।
राज्य में चुनाव से पहले ओम प्रकाश राजभर, संजय निषाद, अनुप्रिया पटेल, संजय चौहान जैसे नेताओं की बढ़ती पूछ भी इसी ट्रेंड का परिणाम है। बीजेपी कल्याण सिंह के निधन के बाद उनके सम्मान के बहाने अपने ओबीसी नेताओं को एक मंच पर करने की कोशिश कर रही है। वहीं, मायावती ने अपनी पार्टी के अंदर ब्राह्मण और ओबीसी नेताओं को अधिक तरजीह देने की रणनीति बनाई है। माना जा रहा है कि इस बार चुनाव में टिकट बंटवारे में ओबीसी नेताओं को सबसे अधिक लाभ मिल सकता है।
उसी तरह अभी छत्तीसगढ़ में जब भूपेश बघेल बनाम टीएस सिंह देव के बीच सीएम पद को लेकर गुटबाजी हुई तो बघेल का मजबूत ओबीसी नेता होना ही उनके पक्ष में गया। पार्टी के अंदर आम राय बनी कि मौजूदा माहौल में बघेल जैसे ओबीसी नेता को अस्थिर करने का जोखिम नहीं लिया जा सकता। बिहार में आरजेडी ने ओबीसी को अपने पक्ष में करने के लिए विशेष अभियान तक छेड़ दिया है। पार्टी ने कहा कि ओबीसी चेहरों को मीडिया से लेकर मंच तक अधिक से अधिक मौका देगी। तेजस्वी यादव के सामने भी अखिलेश यादव की तरह गैर-यादव ओबीसी को जोड़ने की चुनौती है।
बिहार में तेजस्वी यादव ने भी मुस्लिम-यादव के अपने पारंपरिक समीकरण से निकलकर पार्टी में ओबीसी नेताओं को अधिक तरजीह देने की रणनीति बनाई है। उधर, नीतीश कुमार एक बार फिर से खुद को ओबीसी नेता के रूप में स्थापित करने के लिए एक के बाद एक कई राजनीतिक दांव खेलने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, विपक्ष 2024 आम चुनाव से पहले ओबीसी वोटरों के बीच अपनी पहुंच बना लेना चाहता है। ओबीसी वोटरों तक पहुंच बनाने के लिए इन दलों के अंदर मजबूत ओबीसी नेतृत्व की भी जरूरत होगी। संख्या के लिहाज से भी यह सबसे बड़ा समूह है। माना जा रहा है कि ओबीसी राजनीति आम चुनाव से पहले और प्रमुखता से सामने आएगी और आरक्षण बढ़ाने की मांग एक बड़ा मुद्दा बन सकती है। ऐसे में इस मसले पर अधिकतम सियासी लाभ लेने के लिए सभी दलों को अपनी टीम भी नए सिरे से गठित करनी पड़ रही है।
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