संपूर्ण तख्ता पलट हो जाने के बावजूद अफगानिस्तान में तालिबान की ओर से सरकार गठन का वक्त खिसका दिया गया है, ऐसा लग रहा है कि तख्ता पलट तो हो गया लेकिन तालिबान के अलग-अलग गुटों में सरकार बनाने पर सहमति अभी तक नहीं बन पा रही। वहीं दूसरी ओर पंजशीर में विपक्ष की ओर से तालिबान को टक्कर दी जा रही है। काबुल में महिलाएं भी तालिबान की पांबदियों के खिलाफ सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन कर रही हैं। ऐसी परिस्थितियों अफगानिस्तान देश में राजनीतिक स्थिरता की उम्मीद करना मुश्किल है। वहीं दूसरी तरफ जिस तरह पाकिस्तान की ओर से वहां आईएसआई की मौजूदगी दिखाई दे रही है वह भी सहज नहीं।
सवाल यह उठता है कि तालिबानी अपने बदले हुए नजरिये का प्रमाण दे सकेंगे? कभी तालिबान में पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में दखल न देने की बात सामने आती है तो कभी तालिबान का प्रवक्ता कहता है कि वह कश्मीर सहित मुस्लमानों से संबंधित किसी भी देश में अपनी बात रखने का अधिकार रखते हैं। एक ही मुद्दे पर अलग-अलग बयानबाजी तालिबानों की सिद्धांतक भिन्नता, एकजुटता पर कहनी और करनी के अंतर को सामने लाती है। अफगानिस्तान में आईएसआई की मौजूदगी की चर्चा इस बात का संदेह पैदा करती है कि पाकिस्तान तालिबानों को अपने काबू में रखने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहता। इस उथल-पुथल में भारत को अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए कूटनीतिक बढ़त बनानी होगी। तालिबान के कब्जे के बावजूद वहां अविश्वास का माहौल है।
लाखों लोग देश छोड़कर जा रहे हैं। सबकुछ शांत होने के बाद ही तस्वीर साफ होगी। रूस और चीन इस दौर में अपना दांव लगाने की कोशिश कर रहे हैं। संयुक्त राष्टÑ की सुरक्षा परिषद् में भारत अपने हक में प्रस्ताव पास करवाने में कामयाब हो गया है, लेकिन रूस और चीन की अनुपस्थिति भी भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है। तीन ताकतवर देशों (रूस, अमेरिका और चीन) में से दो देशों का एकजुट होना काफी चिंताजनक है। भारत को इस मामले में फंूक-फंूक कर कदम उठाने होंगे। अमेरिकी कूटनीति चिंताजनक है जो पारे की भांति ऊपर-नीचे हो रही है। ऐसी परिस्थितियों में रूस और चीन का सिक्का चलने की संभावना बन जाती है, जिस के लिए भारत को अपने पुराने दोस्त रूस से कैसे सहयोग लेना है यह बड़ी बात होगी। चीन और पाकिस्तान को समझने के लिए रूस से नजदीकियां भारत के लिए सबसे जरूरी हैं, जिसके लिए नए रास्तों की तलाश की जानी चाहिए।
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