अफगानिस्तान में उथल-पुथल की स्थिति भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है। अफगानिस्तान में भारत एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी नहीं था किंतु अपनी मानवीय सहायता और वर्ष 2001 से 3 बिलियन डॉलर के निवेश से उसने अफगानी जनता में अपना स्थान बना लिया था। अफगानिस्तान की भू राजनीति का न केवल व्यापार अपितु सुरक्षा के मामले में भी इस उपमहाद्वीप पर प्रभाव पड़ेगा। भारत ने अमरीका का सैनिक सहयोगी न बनकर उचित ही कदम उठाया है। शायद भारत ने श्रीलंका में शांति स्थापना के अनुभव से सबक लिया है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए दांव हमेशा बना रहा है। किंतु अब भारत क्या कर सकता है?
भारत अफगानिस्तान के अस्थिर शासन के साथ संबंध बनाने में निवेश करता रहा है। अफगानिस्तान के जो लोग प्रशिक्षण के लिए भारत में आए वे हमेशा भारत का आभार व्यक्त करते रहे हैं। भारतीय कूटनीति ने भावनात्मक सुरक्षा, सांस्कृतिक संबंधों के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। साथ ही भारत ने व्यापार और पुनर्निर्माण के लिए अफगानिस्तान को सहायता दी है। आज हजारों अफगानी काम, प्रशिक्षण, कौशल प्रशिक्षण, शिक्षा, चिकित्सा उपचार के लिए भारत आते हैं। भारत में अफगान मूल के 2200 छात्र छात्रवृति लेकर भारत में अध्ययनरत हैं और उनका भविष्य अनिश्चित दिखायी देता है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् उन्हें सहायता देता रहेगा।
भारत इस बात से आहत है कि तालिबान के नेतृत्व में आतंकवाद के विरुद्ध 20 वर्ष से अमरीका के संघर्ष में ओसामा बिन लादेन की हत्या हुई, किंतु अंत में अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आया। भारत के लिए यह भी हैरानी की बात है कि सउदी अरब और कतर से उनके बेहतर संबंध के बावजूद वे तालिबान को समर्थन दे रहे हैं और तुर्की अफगानिस्तान में तालिबान का पुरजोर समर्थन कर रहा है। अमरीका द्वारा पाकिस्तान की तुलना में भारत को अधिक महत्व देने से पाकिस्तान आहत था। अब वह भारत को परेशानी में डालने का कोई भी अवसर नहीं चूकेगा।
इस वातावरण में कारण कोई भी हो, भारत ने ईरान से दूरी बनायी जो कि दशकों से भारत का मित्र था। जिसके चलते ईरान से रूपए में पेट्रोल खरीद का समझौता खत्म हुआ। भारत चाहबहार पत्तन के विकास में महतवपूर्ण भूमिका निभा रहा था जो मध्य एशिया में भारत के लिए प्रवेश द्वार की तरह था। यह परियोजना अधर में लटक गयी है। ईरान ने रूस और चीन के साथ काबुल में अपना दूतावास खुला रखा है। इसके लिए ईरान को दोष नहीं दिया जा सकता है उसके लिए अब तालिबान महत्वपूर्ण है क्योंकि उसे अपने हितों की रक्षा करनी है। भारत के लिए स्वाभाविक है कि वह ईरान के साथ संबंध पुन: स्थापित करे। भारत द्वारा यकायक इन संबंधों से हाथ खींचने से ईरान भी हैरान है।
भारत को इन संबंधों को पुनजीर्वित करने का प्रयास करना चाहिए। यह भू राजनीतिक स्थिति और व्यावहारिक आर्थिक कारणों से भी उपयोगी है। ईरान के साथ बेहतर संबंधों से मध्य एशिया तक भारत की पहुंच में सहायता मिलेगी जिससे व्यापारिक संबंध सुदृढ़ होंगे।
वर्तमान में मध्य एशिया में भारत की व्यावसायिक उपस्थिति सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों पंजाब नेशनल बैंक, ओएनजीसी विदेश लिमिटेड के माध्यम से कजाकिस्तान में है। निजी निवेश में सन ग्रुप जो कजाकिस्तान की यूबीलिनोए स्वर्ण खदान में कार्य कर रही है। इसके अलावा केईसी इंटरनेशनल लिमिटेड और कॉस्मोपोलिटन बिल्डर्स एंड होटिलियर्स लि0 कजाकिस्तान में अपनी परियोजनाएं चला रहे हैं। वर्तमान में उड़ानों पर रोक के कारण इन देशों में यात्रा करना सरल नहीं है और व्यापार भी महंगा होता जा रहा है।
तथापि भारत अफगानिस्तान में मित्रविहीन नहीं है। यह इस बात से प्रमाणित होता है कि भारत के कूटनयिकों और भारतीय लोगों को अफगानिस्तान से निकालने के लिए सुरक्षित मार्ग मिला है। तथापि यह भारत की विदेश नीति और सुरक्षा चिंताओं के लिए एक करारा झटका है। तात्कालिक चिंता का विषय यह भी है कि क्या पाकिस्तान से लगी जम्मू कश्मीर की सीमा को और अधिक सुरक्षित करने के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता है क्योंकि जम्मू कश्मीर मुजाहिदीन के एजेंडे पर रहा है। तालिबान द्वारा काबुल में भारत के राजदूतावास और हेरात में वाणिज्यिक दूतावास पर छापा मारना बहुत कुछ बताता है। तालिबान के साथ निपटने के लिए भारत को संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा। भारत द्वारा अफगानिस्तान के पुननिर्माण और वहां पर निवेश भी प्रभावित होगा।
कट्टरवादी शासन का रूख अभी भी भारत विरोधी है और वह भारत के वाणिज्य दूतावासों पर लूटपाट कर रहा है और अनेक भारतीयों को विमानपत्तन के नजदीक से अपहरण कर रहा है। भारत के लिए फिलहाल वहां ये कार्य जारी रखना कठिन है। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण कॉरीडोर की एक महत्वपूर्ण पहल की है जो ईरान, मध्य एशिया और यूरोशिया तक जाएगा जो मोदी द्वारा कजाकिस्तान, तुर्केमिनिस्तान, ईरान को रेल लिंक से जोड़ने की योजना से जुड़ा हुआ है। इस रेल लिंक को चाहबहार पत्तन तक भी जोड़ना है और यह एक डेडीकेटिड फ्रेट कोरीडोर होगा जिसमें स्पेशल इकोनोमिक जोन होंगे जिनका निर्माण भारत द्वारा किया जाएगा।
क्या चीन अपनी वन बेल्ट, वन रोड परियोजना के माध्यम से भारत को पछाड रहा है? अफगानिस्तान में चीन की वाणिज्य दूतावास उपस्थिति बहुत कुछ कहती है। चीन न केवल भारत की सीमा पर उसका एक प्रबल प्रतिद्वंदी बन रहा है अपितु अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी भारत का प्रबल प्रतिद्वंदी बन रहा है। चीन अब कजाकिस्तान और तुर्केमिनस्तान का सबसे बडा व्यापारिक साझीदार है और उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान का दूसरा सबसे बडा व्यापारिक साझीदार तथा कजाकिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है।
भारत को अफगानिस्तान में स्वयं को पुन: स्थापित करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे तथा अफगानिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों में अपने प्रतिद्वंदियों को पछाडने की दिशा में कार्य करना होगा ताकि वह अपने व्यापार और कूटनीति को इस जटिल दुनिया में आगे बढा सके। इस भूभाग में विश्व के निकाय भी मूक दर्शक बने हुए हैं।