पिछले कुछ वर्षों से भारत के आर्थिक विकास की जब भी बात होती है तो इस बात पर सबसे ज्यादा बल दिया जाता है कि भारत की जनसंख्या के 65 फीसदी लोग 35 साल से कम उम्र के हैं, यानी यहां युवाओं की एक बड़ी संख्या है जो काम करने के योग्य है। इसका मतलब है कि भारत में हर साल करीब एक करोड़ युवा काम करने के योग्य हो जाते हैं। इससे ये अनुमान लगाया जाता है कि जब ये युवा शक्ति पैसे कमाना और खर्च करने लगती है तो विकास की दर में तेजी आएगी और इससे लाखों लोग गरीबी की रेखा के ऊपर आ जाएंगे।
2014 में चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने रोजगार पैदा करने को एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था। उनका कहना था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वो करीब एक करोड़ नौकरियां देंगे और बार-बार भारत के युवाओं के सामर्थ्य का जिक्र करते थे। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि, नौजवानों में बेरोजगारी की दर बहुत अधिक है। कोरोना काल में बेरोजगारी के आंकड़ें तेजी से बढ़े हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक हरियाणा में बेरोजगारी दर सर्वाधिक 27.9 फीसदी है। राजस्थान में दर 26.2 फीसदी, बंगाल में 22.1 फीसदी, बिहार में 10.5 फीसदी और झारखंड में 12.8 फीसदी है। बेरोजगारी दर का अर्थ यह है कि कितने लोग काम चाहते हैं और उनमें कितनों को काम नहीं मिला। गुजरात (1.8 फीसदी), मप्र (2.3 फीसदी), छत्तीसगढ़ (2.6 फीसदी), महाराष्ट्र (4.4 फीसदी) और यूपी (4.3 फीसदी) में यह दर राष्ट्रीय औसत से कम है। असल में भारतीय अर्थव्यवस्था और इसको चलाने वाले सरकारी नौकरशाह दोनों ही व्यवसायी और रोजगार पैदा करने वाली मानसिकता का समर्थन नहीं करते हैं। भारत में लाल-फीताशाही बहुत अधिक है और भारतीय अर्थव्यवस्था में कई महत्वपूर्ण सुधार अभी भी फाइलों में ही पड़े हैं। इसके लिए अकेले मोदी को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है जो कि सिर्फ सात वर्षों से सत्ता में हैं। ये समस्या बहुत पुरानी है और इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
यदि किसी नागरिक को एक सप्ताह में एक घंटे का ही काम मिलता है, तो वह बेरोजगार नहीं है। यदि नागरिक इतना-सा भी काम हासिल न कर पाने की स्थिति में है, तो उसे बेरोजगार माना जाएगा। इसी तरह जो व्यक्ति एक दिन में औसत 375 रुपए या उससे कम ही कमा पाता है, तो वह गरीब है। ये बेरोजगारी और गरीबी पर सरकार की परिभाषाएं हैं। यह उस देश की सरकार की मान्यताएं हैं, जो विश्व की छठे स्थान की अर्थव्यवस्था होने का दावा करती रही है और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना पाले हुए है।
विशेषज्ञ यह तथ्य कई बार दोहरा चुके हैं कि करीब 23 करोड़ भारतीय गरीबी-रेखा के नीचे आए हैं। गरीबी-रेखा के नीचे जीने को जो पहले से ही अभिशप्त हैं, वे आंकड़े इनसे अलग हैं। यह गरीबी की नई जमात है। इसमें आर्थिक मंदी और कोरोना महामारी दोनों की ही भूमिकाएं हैं। करीब 97 फीसदी लोगों की आय औसतन वही है, जो 4-5 साल पहले होती थी। उस पर एक और भयानक वज्रपात यह हुआ है कि जुलाई, 2021 में ही करीब 32 लाख लोगों की नौकरियां छिन गई हैं। उनमें करीब 26 लाख शहरी थे, नतीजतन करीब 7.64 करोड़ ही वेतनभोगी बचे हैं। दिलचस्प और चौंकाने वाला आंकड़ा यह है कि भारत सरकार दावा कर रही है कि बेरोजगारी घटी है। करीब 24 लाख छोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरी वाले और दिहाड़ीदार बढ़े हैं। सरकारी आंकड़ों का खुलासा है कि करीब 30 लाख लोग किसानी के धंधे से जुड़े हैं।
ये नए किसान हैं, जबकि राजधानी दिल्ली के बाहर बीते 8 माह से धरने पर बैठे किसान अपने आर्थिक हालात और धंधे के लगातार घाटे को लेकर रो रहे हैं। सरकार ने जिन आधारों पर बेरोजगारी कम होने का दावा किया है, उन्हें मुकम्मल रोजगार भी करार दे रही है। हकीकत यह है कि जो प्रवासी मजदूर या कामगार अपने गांव को, कोरोना-काल के दौरान, लौटे थे, उनमें से कई तो परिवार की परंपरागत खेती-किसानी में जुट गए हैं। सरकार उन्हें पूरा किसान मान रही है। यह आत्म-छलावे की सोच है। यह भी महत्त्वपूर्ण डाटा है कि करीब 50 फीसदी प्रवासी मजदूर अपने गांवों से शहरों को लौटे ही नहीं हैं। जो लौटे भी हैं, वे औने-पौने वेतन या दिहाड़ी पर काम करने को विवश हैं।
डिमौनेटाइजेशन यानी नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों को भारी नुकसान पहुंचाया और खासकर असंगठित क्षेत्र पर तो और भी बुरा असर पड़ा, क्योंकि वो पूरी तरह कैश लेन-देन से चलता है। कृषि को भी भारी नुकसान हुआ क्योंकि किसान भी ज्यादातर लेन-देन कैश में ही करते हैं। कई छोटे कारोबार बंद हो गए और जो किसी तरह अपना कारोबार बचाने में कामयाब रहे उन्होंने अपने यहां काम करने वालों की संख्या कम कर दी, जिससे लाखों लोग बेकार हो गए। इन हालात में युवाओं के नौकरी से निकाले जाने की आशंका सबसे ज्यादा बढ़ गई।
नोटबंदी के बाद जुलाई 2017 में जीएसटी लागू हुआ। इसके चलते नई नौकरियां निकलने में और भी देरी हुई, और इससे साफ संकेत गया कि आने वाले वर्षों में बेरोजगारी और बढ़ेगी। ताजा रपट में अनेक खुलासे किए गए हैं, जो नए भारत की असली तस्वीर बयां करते हैं। सरकार के ही स्वास्थ्य, शिक्षा, रेलवे, गैर-शिक्षक, आंगनवाड़ी आदि विभागों में लाखों रिक्तियां अधिकृत हैं और पद खाली पड़े हैं, लेकिन उन्हें भरा क्यों नहीं जा रहा है? प्रधानमंत्री मोदी ने नया खुलासा किया है कि पहली बार 2020-21 के दौरान भारत का निर्यात 2.5 लाख करोड़ रुपए को पार कर गया है। भारत कृषि क्षेत्र में विश्व के शीर्ष 10 देशों में शामिल हो चुका है। अर्थव्यवस्था ठोस रूप से बढ़ रही है। यदि आर्थिक स्रोत और संसाधन बढ़ रहे हैं, तो लाखों खाली पड़े पदों पर ही भर्तियां करके बेरोजगारी को कम क्यों नहीं किया जा सकता? सरकार ही सफाई दे सकती है कि बेरोजगारी के विरोधाभास कब समाप्त होंगे? समय रहते बेरोजगारी की समस्या पर गंभीरता से चिंतन-मंथन करते हुए दीर्घकालीन ठोस नीति बनानी होगी। वरना बेरोजगार आबादी कई समस्याओं का कारण बन सकती है।
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