हैदराबाद की एक विशेष अदालत ने तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद कविता मलोथ को छह माह कारावास की सजा सुनाई है। कविता ने 2019 लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में मतदान के लिए लोगों को पैसे बांटे थे। चुनाव के दौरान मतदाताओं को पैसे बांटने के लिए किसी पदस्थ सांसद को अपराधी ठहराने की यह पहली घटना है। इस प्रकार की आपराधिक प्रवृत्तियां राजनीति में बढ़ना चिंता का विषय है। नेताओं के अपराधीकरण की पृष्ठभूमि को जानने के लिए बैलेट पेपर के युग में जाना होगा। तब बहुत से उम्मीदवार मतदाताओं को डराने-धमकाने के लिए बाहुबलियों का इस्तेमाल करते थे। बाहुबली लोगों को डराने-धमकाने के साथ ही मतदान केंद्र पर लोगों से जबरन किसी विशेष उम्मीदवार के पक्ष में बूथ कैपचरिंग कर मत भी डलवाते थे।
कई सालों तक ऐसा ही चलता रहा। धीरे-धीरे बाहुबलियों की समझ में आया कि जब राजनेता उनके भरोसे जीत रहे हैं, तो क्यों न वे ही चुनाव में खड़े हो जाएं, राजनीतिक दलों को भी लगा कि दूसरे उम्मीदवार को खड़ा करने और उनके लिए मेहनत व पैसे खर्च करने से बेहतर है कि बाहुबलियों को ही टिकट दिया जाए। इस प्रकार राजनीति के अपराधीकरण की शुरूआत हुई और बाहुबली संसद व विधानसभा पहुंचने लगे। धीरे-धीरे बैलेट पेपर खत्म हो गये, ईवीएम आ गई। पर राजनीतिक दलों ने अपने सांसद, विधायक बनाने का यह आसान तरीका नहीं छोड़ा। धीरे-धीरे राजनीति में दागियों की संख्या बढ़ने लगी।
वर्ष 2004 की लोकसभा में चुनकर आये 25 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे थे। वर्ष 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या 30 प्रतिशत थी। वर्ष 2014 में यह बढ़कर 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत हो गई। ऐसे हालात तब हैं, जब राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को लेकर हमलोग लगातार जनता के बीच जाते रहते हैं। राजनीतिक दलों को दागियों को टिकट देने से मना करते रहते हैं, लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता। नतीजा, आज संसद में कई ऐसे प्रतिनिधि चुनकर बैठे हैं, जिन पर हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे गंभीर मामले दर्ज हैं।
मतदाताओं के बीच पैसे या शराब बांटने का काम आम तौर पर चुनाव के ठीक एक रात पहले किया जाता है। यह पूरी तरह से योजनाबद्ध व गुप्त तरीके से होता है। हालांकि, सांसद कविता को सजा मिलने के बाद भी चुनावी प्रक्रिया पर कोई खास असर नहीं होने वाला, क्योंकि राजनीतिज्ञों को पैसे बांटने की इतनी आदत पड़ी हुई है कि उसे छुड़वाना बहुत मुश्किल है। दूसरा, सब यही समझते हैं कि भले ही दूसरे पकड़े गये हैं, पर वे पकड़ में नहीं आयेंगे। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट यह अधिकार है कि यदि कानून में कोई कमी है, जिस पर संसद ने अभी तक गौर नहीं किया है और उसकी वजह से जनहित को हानि पहुंच रही है, तो वह कानून का नया प्रारूप तैयार करवा सकता है। और वो तब तक मान्य रहेगा, जब तक संसद उसे लेकर कोई कदम नहीं उठाती है।
चुनाव आयोग के अधिकार सीमित हैं। वह कानून से बाहर नहीं जा सकता। राजनीति में शुचिता लाने के लिए जनता को अपनी आवाज बुलंद करनी होगी और न्यायपालिका को इसका संज्ञान लेकर निर्णय करना होगा। तभी परिवर्तन संभव है।
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter, Instagram, LinkedIn , YouTube पर फॉलो करें।