देश के महान धावक फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं। मिल्खा सिंह की तूफान जैसी दौड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें फलाइंग सिख का दर्जा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान ने दिया। अय्यूब खान ने मिल्खा सिंह को कहा था, आप दौड़े नहीं, बल्कि उड़े हो। सन 1958 के राष्ट्रमंडल खेल में मिल्खा सिंह ने भारत की झोली में पहला स्वर्ण पदक डालकर ओलंपिक में भारत की उपस्थिति दर्ज करवाई। बात केवल पदक जीतने की नहीं होती बल्कि खेल भावना की होती है जिसकी वे एक बड़ी मिसाल थे। अपने विरोधी को हराने के बाद भी वे उनका हौंसला बढ़ाते थे। मिल्खा सिंह का शुरूआती जीवन संघर्ष भरा रहा। उन्होंने कड़ी मेहनत की और खिलाड़ियों में यह भावना पैदा कर गए कि गरीबी व अन्य परिवारिक दुख सफलताओं की राह में बाधक नहीं बन सकते, बशर्तें मनुष्य का मनोबल कठोर होना चाहिए।
ईमानदारी और त्याग मिलखा सिंह के विशेष गुण थे जिन्होंने अपनी बायोपिक के लिए रायल्टी के रूप में केवल एक रुपया लिया था। आज खेल जगत जिस प्रकार भ्रष्टाचार, अनैतिकता, स्वार्थ और धोखाधड़ी से भरा पड़ा है, उसके मद्देनजर मिल्खा सिंह का जीवन खिलाड़ियों, सरकारों और खेल प्रबंधकों के लिए बहुत बड़ी मिसाल है। इन दिनों दूसरे खिलाड़ी को किसी बड़े टूर्नामेंट में रोकने के लिए हिंसा व अन्य कई प्रकार के हथकंडें अपनाने की भद्दी हरकतें चर्चा में हैं। पुलिस को ऐसे मामलों में खिलाड़ियों की तलाश भी है। खिलाड़ियों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ईमानदारी और मेहनत की एक दिन अवश्य जीत होती है।
खेल संस्थाओं और सरकारों को चाहिए कि मिल्खा सिंह को हमारी सच्ची श्रद्धाँजलि यही होगी कि खेल ढांचें को भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाए और उन खिलाड़ियों को भी पूरा अवसर मिले जो जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं लेकिन पैसे की कमी है। आज भी कई राज्यों में यह हाल है कि सरकारों के खेल पुरुस्कार कई-कई साल तक लटकते रहते हैं। खेल विभाग को राजनीति में अनावश्यक विभाग ही समझा जाता है। खिलाड़ियों को आवश्यक सुविधाएं नहीं मिलती या समय पर उपलब्ध नहीं होती। कई प्रसिद्ध खिलाड़ी छोटी-मोटी नौकरी के लिए सरकारी कार्यालयों में परेशान होते फिरते हैं। खिलाड़ियों की दुर्दशा देश की दुर्दशा है। खिलाड़ियों को सम्मान देने और उनकी सुध लेने से ही देश का विकास संभव है।
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