यहूदी देश इजरायल और फिलिस्तीन के बीच 11 दिन के भीषण संघर्ष के बाद अंतत: दोनों पक्ष सीजफायर के लिए राजी होे गये हंै। 11 दिन के इस अल्कालिक युद्ध में 65 बच्चों सहित 232 लोगों की मौत हो गई। 1900 लोगों के घायल होने की सूचना है। डेढ़ लाख से अधिक लोगों को जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा। इजरायल की ओर से दागे गए रॉकेटों से कई छोटी-बड़ी इमारतें मलबे में तब्दील हो गई। सीजफायर की घोषणा के बाद गाजा पट्टी में जश्न का माहौल शुरू हो गया। वैस्ट बैंक में भी हर्षित भीड़ सड़कों पर उतरी आयी। लोगों ने गाड़ियों के हॉर्न बजाकर व हवाई फायर कर खुशी प्रकट की। लेकिन सवाल यह है कि इस खुशी की उम्र कितनी है।
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सुरक्षा कैबिनेट ने जब गुरूवार की रात अचानक गाजा पट्टी में एक तरफा संघर्ष विराम की घोषणा की तो दुनिया हैरान रह गयी। हैरानी की वजह भी थी। बार-बार लड़ाई को निर्णायक मोड़ तक ले जाने की बात कहने वाला इजरायल गुरूवार की सबुह तक गाजा पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा था । अमेरिका सहित दो दर्जन से अधिक देश गुप-चुप तरीके से इजरायली कार्रवाई का समर्थन करते हुए उसे सही ठहरा रहे थे। इसके लिए बेंजामिन ने अपने समर्थक देशों का धन्यवाद करते हुए उनके झंडे के साथ एक टवीट् भी किया था। यह अलग बात है कि उसमें भारत का झंडा नहीं था। ऐसे में अचानक देर रात सीजफायर के लिए इजरायल का राजी होना सवाल पैदा कर रहा हैं।
कहा तो यह जा रहा है कि हमलों को रोकने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की ओर से लगातार दबाव बनाए जाने के बाद बेंजामिन युद्ध विराम के लिए राजी हुए। लेकिन सवाल यह है कि अगर अमेरिकी दबाव के चलते इजरायल युद्ध विराम के लिए राजी हुआ है, तो जो बाइडेन दस दिन तक गजा में लोगों को मरते हुए क्यों देखते रहे। अगर यह कहा जाए कि अमेरिका झगड़ा शुरू होने के पहले ही दिन से उसके रोकने के प्रयास कर रहा था तो उसके प्रयास और उसकी अपील असरकारक साबित क्यों नहीं हुईं। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार गाजा पर हमले रोकने के लिए बाइडेन ने कई बार अपील की जिसे नेतन्याहू ने यह कहकर ठुकरा दिया कि आॅपरेशन तब तक चलता रहेगा जब तक वह लक्ष्य नहीं पा लेते हैं। यहां सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या नेतन्याहू अपने कथित लक्ष्य को पाने में सफल हो गए।
यरूशलम की अल-अक्सा मस्जिद परिसर में नमाजियों पर इजरायली सुरक्षा बलों के हमले के बाद हिंसा भड़क गयी थी। हमास ने इजरायल पर एक साथ सैकड़ों रॉकेट की बौछार कर एक तरह से युद्ध का आगाज कर दिया था। इजरायल ने भी जवाबी कार्रवाई की। देखते ही देखते दोनों पक्षों के बीच खूनी संघर्ष शुरू हो गया । इजरायल की ओर से किए गए रॉकेट हमलों में गाजा पट्टी में जड़े जमा चुके हमास को बड़ा नुक्सान उठाना पड़ा है। इजरायली हमलों में उसके कई बड़े कमाडरों के मारे जाने के समाचार हैं। कहा जा रहा है कि साल 2014 के बाद पहली बार दोनों के बीच ऐसा भीषण संघर्ष देखने को मिला। अमेरिका सहित दुनिया के कई बड़े देशों के समर्थन के चलते प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहूए खुफिया एजेंसी मोसाद व उनके होनहार रक्षा मंत्री को उम्मीद थी कि हमास को जल्द ही घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
हमास इजरायली आक्रमणों के सामने डटा रहा। अब युद्ध विराम की घोषणा के बाद हमास ने इजरायल के साथ संघर्ष में जीत का दावा कर बेंजामिन के राजनीतिक कैरियर पर प्रश्न चिन्ह् लगा दिया है। हालांकि इजरायल की ओर से कहा यही गया है कि इन हमलों के बाद हमास और इस्लामिक जिहाद कई साल पीछे हो गये हैं। लेकिन वास्तविक तस्वीर कुछ और ही है। बमों और रॉकेट हमले के सहारे इजरायल ने हमास का चाहे कितना ही नुकसान क्यों न कर दिया हो, लेकिन इजरायली आक्रमणों के बाद फिलिस्तीन और खासकर गाजा पट्टी में हमास की स्थित पहले से कही अधिक मजबूत हो गई है। 11 दिन के इस अल्प कालिक युद्ध में हमास जिस तरह इजरायली आक्रमण के सामने डटा रहा उससे इजरायल विरोधी ताकतें हमास की क्षमता में विश्वास करने लगी हैं। अब निकट भविष्य में जब कभी इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होती है, तो इजरायल विरोधी राष्ट्र खुलकर हमास के समर्थन में आ सकते हैं।
सच तो यह है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए और चुनाव में अपनी पराजय से त्रस्त बेंजामिन ने इजरायली जनता का ध्यान हटाने व अपने राजनीतिक कैरियर को बचाने के लिए हमास को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की नीति अपनाई। कहने को तो अमेरिका बार-बार संघर्ष को समाप्त करने की अपील करता रहा लेकिन साथ ही यह भी कहता रहा कि एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में इजरायल को अपनी रक्षा करने का अधिकार है। अमेरिका की इस बुझी हुई अपील का असल मकसद बेंजामिन को अपना लक्ष्य पूरा करने का समय देना था। ऐसे में सवाल एक बार फिर से वही उठ खड़ा होता है कि युद्ध विराम के लिए बेंजामिन कैसे राजी हो गये।
दरअसल, इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष मेंं अमेरिका के साथ-साथ यूएन की चुप्पी पर भी सवाल उठ रहे थे। जो बाइडेन पर भी पार्टी के भीतर संघर्ष को रोकने के लिए इजरायल पर दबाव बनाने का दबाव बढ़ रहा था। यूरोपीय देशों ने भी युद्धविराम के लिए इजरायल पर दबाव बढ़ा दिया था। आशंका इस बात की
भी व्यक्त की जाने लगी थी कि कहीं मध्यपूर्व के दूसरे देश भी युद्ध में न कूद पड़े। तुर्की पहले से ही फिलिस्तीन के पक्ष में मुस्लिम राष्ट्रों को एक-जूट करने की कोशिशों में लगा हुआ था। तीसरे विश्व युद्ध की सुगबुगाहट व भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते जो बाइडेन ने इजरायली पीएम नेतन्याहू को संघर्ष विराम के लिए राजी किया और मिस्र की मध्यस्थता में दोनों पक्ष संघर्ष विराम पर सहमत हुए। हालांकि अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते एक बारगी तो दोनों पक्ष संघर्ष विराम के लिए राजी हो गए हैं, परन्तु टकराव के असल मुद्दे का समाधन अभी बाकी है। ऐसे में यह कहना या यह मान लेना कि संघर्ष विराम के जरिये मध्यपूर्व में शांति की स्थापना हो गयी है, उचित नहीं है। खासकर उस वक्त जब कि इजरायल यह कह रहा है कि अगर युद्धविराम का सम्मान नहीं किया गया तो युद्ध को फिर से करने लिए उसके दरवाजे खुले हैं।
-डॉ. एनके सोमानी
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।