पिछले साल 13 अगस्त को जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ऐलान किया कि इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) आपसी संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उसी वक्त इस बात की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि अब वो दिन दूर नहीं जब मिडिल ईस्ट फिर किसी बड़ी लड़ाई या जंग का अखाड़ा बन सकता है। साल भर से कम समय के भीतर ही यह आशंका सच साबित हो गयी। पिछले दस दिन तक मिडिल ईस्ट हिंसा की आग में जलता रहा। यरूशलम की अल-अक्सा मस्जिद में नमाजियों पर इजरायली सुरक्षा बलों के हमले के बाद भड़की हिंसा अब किसी बड़ी लड़ाई की ओर संकेत कर लगी थी। यहूदी राज्य इजरायल और फिलिस्तीन के बीच जंग के जो हालात बने हुए थे, उसमें दोनों तरफ के नागरिक मारे जा रहे थे। दुर्भाग्य यह है कि बच्चे भी इस जंग की भेंट चढ़ रहे थे।
हालांकि यूएई कोई पहला अरब देश नहीं है, जिसने इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए समझौता किया है। उससे पहले 1979 में अरब देशों की बड़ी ताकत मिस्र और 1994 में जॉर्डन ने इजरायल के साथ औपचारिक संबंधों की शुरूआत की थी। लेकिन सवाल यह है कि जिस समझौते को अरब-इजरायल के बीच दशकों पुराने विवाद के समाधान की दिशा में बढ़ाया हुआ कदम माना जा रहा था, उसका परिणाम क्या हुआ।
समझौते के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि इजरायल और फिलिस्तीन क्षेत्र में स्थायी शांति की स्थापना हेतू द्विराष्ट्रीय समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन हुआ इसके विपरीत। ऐसे में सवाल यह सवाल उठना लाजमी है कि समझौते के बाद मिडिल ईस्ट हिंसा की भेंट कैसे चढ़ गया। कंही ऐसा तो नहीं कि समझौते के पक्षकार समझौते की आड़ में केवल अपने-अपने दीर्घकालिक हितों को साधने के लिए ही राजी हुए हो। इससे पहले साल 1948, 1956, 1967, 1973 और 2014 में दोनों के बीच पांच बड़ी लड़ाईयां हो चुकी है। ऐसे में एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर इस विवाद की जड़ क्या है।
विवाद के ऐसे कौन से बिन्दू हैं, जिनके चलते दोनों पक्षों के बीच संबंध सामान्य नहीं हो पा रहे हैं। सच तो यह है कि मिडिल ईस्ट में कभी खत्म न होने वाली इस जंग के कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारण रहे हैं। यद्यपि इजरायल-यूएई समझौते के जरिए मिडिल ईस्ट में शांति का प्रयास तो जरूर किया गया लेकिन ऐसे बहुत से बिन्दू अभी अनिर्णित पड़े हैं, जिनके चलते यहां शांति की स्थापना दूर की कौड़ी साबित हो रही है।
सच तो यह है कि इस्लामिक देशों की विभाजित मानसिकता और यूएई, सऊदी अरब व तुर्की जैसे बड़े देशों की क्षेत्रीय शक्ति के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरने की लालसा ने यहां कभी शांति स्थापित नहीं होने दी। अरब राष्ट्रों की आपसी फूट का इजरायल हमेशा लाभ उठाता रहा है । इस फूट के चलते ओआईसी ( इस्लामिक देशों के संघ) और इस्लामिक सहयोग परिषद की बैठकों में इजरायल के विरूद्ध कोई सर्वसम्मत प्रस्ताव प्रारित नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप इजरायल की शक्ति और उसका प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है।
ईरान और सऊदी अरब की आपसी प्रतिद्वंद्वीता भी इस्लामिक देशों के विभाजन की एक बड़ी वजह रही है। ईरान के साथ सऊदी अरब और इजरायल दोनों के रिश्ते बिगड़े हुए है। मिडिल ईस्ट में दोनों देशों के अमेरिका से करीबी संबंध होने के कारण दोनों देश मिडिल ईस्ट में अमेरिकी नीतियों पर चुप्पी साधे रहते हैं।
प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने पिछले दिनों कहा भी था कि हम इजरायल के साथ कई हित साझा करते हैं। अत: सऊदी अरब का इजरायल विरोध शब्दों तक ही सिमट कर रह जाता है। दूसरी ओर तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन दिखाने को तो नित्य प्रति इजरायल के खिलाफ बयान जारी कर रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि वे इजरायल की सामरिक और आर्थिक शक्ति को भलीभांति पहचानते हैं।
1979 के बाद से अब तक इजरायली कूटनीति समझोतों की आड़ में अरब एकजूटता पर प्रहार कर अपने हित साधने की दिशा में ही आगे बढी है। 1979 में अमेरिका के प्रयास से इजरायल ने मिस्र से समझौता कर अरब देशों की एक भुजा को उखाड़ने में सफलता हासिल की । उसके बाद से जहां एक ओर फिलिस्तीनी आंदोलन कमजोर पड़ा वही इजरायल की स्थिति और अधिक मजबूत हो गयी। आगे चलकर जॉॅर्डन व अब यूएई के साथ हुए समझौतों से इजरायल की धाक और अधिक बढ़ गयी। अगले कुछ वर्षों में उसकी कोशिश वेस्ट बैंक इलाके को इजरायल में मिलाने की हो सकती है।
मध्यपूर्व की इस रक्त रंजित स्थित का एक अप्रत्यक्ष कारण डेमोक्रेटस की ‘सोफ्ट डिप्लोमेसी’ भी कही जा सकती है। आंकड़ों पर गौर करे तो अमेरिका में सत्ता परिर्वतन और जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने से पहले तक बीते चार सालों में मिडिल ईस्ट में अमन-चैन कायम था। बाइडेन को सत्ता में आए जूमा-जूमा अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं और अफगानिस्तान और इजरायल से हिंसा की खबरे मिलना शुरू हो गयी।
इससे पहले बराक ओबामा के समय में भी सीरिया, लीबिया और मिस्र घौर राजनीतिक अस्थिरता का केन्द्र बने हुए थे। निसंदेह, इजरायल भारत का अच्छा ‘दोस्त’ और अहम रक्षा सहयोगी है, लेकिन इस कठोर सच्चाई को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि इस्लामिक नेतृत्व को लेकर अरब राष्ट्रवाद की आपसी प्रतिद्वंद्विता ने तो मिडिल ईस्ट के अमन-चैन को तो प्रभावित किया ही है, जमीन के प्रति नेतन्याहू की भूख भी कंही न कंही क्षेत्र की अशांति की एक बड़ी वजह है।
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