डीजल व पैट्रोल की कीमतों में हो रही वृद्धि तकनीकी शब्दों में डी-कंट्रोलिंग सिस्टम का परिणाम है परंतु इसे लोकतांत्रिक व मानवतावादी देश में बेकाबू नहीं छोड़ा जा सकता है। आज हालात यह हैं कि राजस्थान और मध्य-प्रदेश में पैट्रोल 100 रुपए को भी पार कर गया है। अधिकतर राज्यों में डीजल 80-90 के मध्य चल रहा है। यह स्वभाविक है कि जब तेल कीमतें बढ़ेंगी तो किराया-भाड़ा बढ़ने के साथ-साथ महंगाई भी बढ़ेगी और कारोबार भी प्रभावित होगा। वास्तविक तौर पर कोई कानून या नियम जनता के हितों के ऊपर नहीं हो सकता, न ही तर्क की अनदेखी की जा सकती है। डी-कंट्रोल केवल एक प्रणाली का नाम होना चाहिए जो प्रतिदिन के रेट्स के उतार-चढ़ाव को तय करे वह भी इस शर्त पर कि कीमतों में उतार-चढ़ाव देश की जनता के लिए बड़ी मुश्किल न बने।
डी-कंट्रोलिंग अंतर्राष्टÑीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों व तेल कम्पिनयों के खर्चों को मुख्य रखती है। जिसमें तेल कम्पिनयों के मुनाफे को अहमियत दी जाती है। तेल कम्पिनयों के मुनाफे के लिए जनता के हितों को नजरअंदाज नहीं किया जाता है। अंतर्राष्टÑीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने के समय देश में तेल की कीमत बढ़ाकर जनता पर बोझ जरुर डाल दिया जाता है परंतु कच्चे तेल की कीमतें गिरने पर देश के बाजार में तेल कीमतों में कोई कटौती नहीं की जाती है। न्यायसंगत बात यह है कि अगर जनता बोझ सहन करती है तब राहत के समय उसे राहत भी मिलनी चाहिए। यूं भी तेल कम्पिनयां जब बड़ा मुनाफा कमाती हैं तब विज्ञापनों पर पैसा पानी की तरह बहाती हैं, अत: जनता को उसके हक की राहत क्यों नहीं दी जा सकती।
यह भी हैरानी वाली बात है कि जीएसटी लागू होने के बावजूद तेल कीमतों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है। तेल कीमतों पर अभी तक कोई एक नीति नहीं बन सकी वैट लगाने का अधिकार राज्यों पर छोड़ दिया गया है। पहले केन्द्र सरकार कई टैक्स लगाती है फिर राज्य सरकारों का टैक्स शुरु हो जाता है। डीजल का प्रयोग सीधे तौर पर कृषि कार्यों के लिए किया जाता है। यह पूरी तरह से आमजन का मामला है। डी-कंट्रोलिंग प्रणाली को बेकाबू महंगाई के रुप में स्वीकार करना जनता के हित में नहीं, केन्द्र सरकार लोगों को राहत देने के लिए कुछ प्रयास एवं सुधार अवश्य करे।
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