माता कभी कुमाता नहीं होती

मां! पता नहीं क्यों, तू हर समय मुझे डांटती रहती है। अब मैं बड़ा हो गया हूं। तेरी प्रताड़ना मुझे अखरती है। हां रे सोहन? मंै तो भूल गयी थी…अच्छा याद दिलाया। अब तो तू बड़ा हो गया है। मैं तो शायद उतनी की उतनी ही हूं । …तेरे और मेरे में अन्तर जरूर घट गया है। अब मैं तुम्हें कभी नहीं डाटूंगी। …जा, मेरे तकिये के नीचे दस का नोट रखा है। ले ले उसे।…बस इतने ही पैसे हैं मेरे पास आज। मुझे पचास चाहिए। दस से क्या बनेगा मेरा। कह दिया न बेटा! आज तो यही है। मां ने कहते-कहते अपने आप को गेहूं साफ करने में व्यस्त कर लिया। वह कंकड़ निकालने लगी। पुत्र की ओर देखा भी नहीं किन्तु पुत्र था कि क्रोध में लाल-पीला होता गया। पास ही चिमटा पड़ा था। उठाकर मां के सिर पर मारा और भाग खड़ा हुआ। मां के कपड़े रक्त से लथपथ होने लगे। उसने यह भी देखा किन्तु तेजी से आगे चला गया।

आंगन के बाहर दहलान थी, उस पर से नीचे कूदा किन्तु साथ ही लगे नीबू के पेड़ में कमीज की बाजू फंस गई। वह अपना संतुलन खो बैैठा। सिर के बल गिरा। नीचे भैंस को बांधने वाला खूंटा था। सिर उसी पर जोर से लगा। और…मां अभी अपने आप को संभाल ही रही थी कि पुत्र की दुर्दशा देख बहते खून के साथ दौड़ती हुई सोहन के पास पहुंची। नब्ज देखी। नाड़ी बन्द हो चुकी थी। …आत्मा शरीर को त्याग कर परमात्मा से जा मिली। मां जान गई कि पुत्र नहीं रहा। तब भी वह अंदर गयी। रुई तथा डिटॉल लाकर उसके घावों पर लगाने लगी। अपने घाव की तो मां को चिंता ही नहीं थी। चिंता थी तो बेटे की। सोहन के चाचा भी दौड़े आये। कुछ लोग और भी। उन्होंने भी जांच के बाद कह दिया- बेचारा नहीं रहा किन्तु मां ने अभी भी उसके सिर से निकला खून पोंछना जारी रखा। चेहरा साफ किया। मुंह से निकले झाग को हटाते हुए कहा- बेटा! बहुत दर्द तो नहीं हुआ तुझे…बता, मां को तो बता। …पास खड़े एक ब्राह्मण ने कहा- पूत, कपूत हो सकता है, माता कभी कुमाता नहीं होती।
-सुदर्शन भाटिया

 

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