अफगान-तालिबान समझौते पर भारत को रहना होगा चौकस

Afghan Taliban Agreement

अफगानिस्तान में सरकार और तालिबान के बीच समझौता होने से भले ही शांति बहाल होने की उम्मीद है, लेकिन इस समझौते के दूरदर्शी प्रभावों के प्रति भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है। भारत समेत तकरीबन ढाई दर्जन देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विदेश मंत्री और प्रतिनिधि इस समझौते के गवाह बने। सभी ने समझौते के मूर्त रूप लेने की उम्मीद जताई और माना कि अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते के बाद अफगानिस्तान में पिछले दो दशकों से जारी हिंसा का दौर रूक सकेगा। अफगान मामला यदि केवल आंतरिक गुटों व तत्वों तक सीमित होता तब इससे सरलता से निपटाया जा सकता था। दरअसल इस मुद्दे पर पाकिस्तान के हित, इरादे, नीतियों को अनदेखा करना भारत के लिए चुनौतीपूर्ण है। वास्तव में अफगानिस्तान में 1990 के दशक में लोकतंत्र और शांति को भंग करने के पीछे पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रही है।

अब तक पाकिस्तान इसी कोशिश में जुटा हुआ था कि भारत इस क्षेत्र में शांति के लिए तैयार की जा रही रूप रेखा का हिस्सा न बन सके। अब वार्ता के लिए तैयार किये जा रहे रोडमैप पर फैसला लेने वाले देशों की सूचि में शामिल होने के बाद भारत तालिबान के मोर्चें पर पाकिस्तान को कांउटर कर सकेगा। पाकिस्तान के शासक इस बात को स्वीकार करते रहे हैं कि पाकिस्तान ने तालिबान किसी विशेष उद्देश्य के लिए तैयार किए थे। राष्ट्रपति डॉ. नजीबुल्लाह की सरकार की सत्ता समाप्त होने से वहां लोकतंत्रीय सरकार की जगह कट्टरवादी ताकतों ने शासन किया। पिछले करीब चार दशकों से अफगान्सितान ने बम धमाकों से खंडहर होती इमारतें, लाशों के ढेर और विलाप करते लोगों के सिवाय ओर कुछ नहीं देखा।

यदि अमेरिका ने अफगानिस्तान में मोर्चा संभाला तब जान बचाने के लिए भागने वाले तालिबान लड़ाके को पाकिस्तान ने न केवल पनाह दी बल्कि लड़ाके यहां से मजबूत होकर फिर अफगानिस्तान में कार्रवाई करते रहे। दरअसल अन्य कारणों के साथ-साथ एक बड़ा कारण यह भी था कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में अपनी पसंद का शासक बनाना चाहता था। पाकिस्तान को भारत के मित्र रूस के समर्थन वाली अफगान सरकार रास नहीं आ रही थी। परिणाम यह निकला कि अफगानिस्तान अमेरिका, रूस सहित कई देशों की प्रयोगशाला बन गया। आखिर अमेरिका ने तालिबान का गढ़ भेदने के लिए सन् 2000 में सैनिक कार्रवाई की और अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में मार गिराया।

भले ही भारत अफगानिस्तान में शांति बहाल होने का समर्थन करता है लेकिन राजनीतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में प्रजातांत्रिक व मानवीय मूल्यों को प्राथमिकिता देने की आवश्यकता है। भारत के लिए चिंताजनक बात यह है कि इस समझौते के नाम पर होने वाले परिवर्तन में पाकिस्तान की विचारधारा व समर्थन प्राप्त तालिबान कहीं सत्ता का बड़ा केंद्र न बन जाए। यूं भी इस समझौते को ईरान व चीन भी गंभीरता से देख रहे हैं लेकिन भारत को इस मामले में पूरी चौकसी बरतनी होगी। जम्मू कश्मीर में पाक आधारित आतंकवाद पहले ही सक्रिय है। पाकिस्तान अफगानिस्तान में आतंकवाद का कोई ओर नैटवर्क न बना ले, ऐसे में भारत को कूटनीतिक तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए।

 

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