इस समय कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। अब बुजुर्गों के साथ-साथ युवा और बच्चे भी बड़ी संख्या में संक्रमित हो रहे हैं। पूरी दुनिया में इलाज के संसाधन कोरोना के आगे कम पड़ने लगे हैं। नतीजतन वैज्ञानिक ऐसे उपाय तलाशने में लगे हैं, जिससे विषाणु संक्रमण से प्राकृतिक रूप में स्वयं उपचार करके बचा जा सके। इस नाते लंदन में चल रहे एक शोध-अध्ययन ने नई उम्मीद जगाई है।
अध्ययन से पता चला है कि सूरज की धूप में ज्यादा समय बिताने से संक्रमण का खतरा तो कम होता ही है, मौतें भी कम होती हैं। शायद इसीलिए परिश्रमी किसान और मजदूरों को कोरोना कम हो रहा है। यह अध्ययन सूरज की रोशनी से निकलने वाली अल्ट्रावॉइलेट किरणों और कोविड-19 वायरस से होने वाली कम मौतों को लेकर ब्रिटेन का एडिनबर्ग विवि कर रहा है। इटली में भी इसी तरह का मिला-जुला शोध चल रहा है। शोधकतार्ओं का दावा है कि यदि धूप और कोरोना वायरस में तालमेल बैठ जाता है तो लोगों के प्राण बचाने में मदद मिल सकती है। दरअसल धूप में ज्यादा वक्त बिताने से त्वचा से पसीने के जरिए नाइट्रिक ऑक्साइड बाहर निकल जाता है, नतीजतन वायरस शरीर में अधिक मात्रा में फैल नहीं पाता। अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने इसी नाइट्रिक ऑक्साइड को कोरोना के पोषण का कारक माना है।
सनातन जीवन शैली व दिनचर्या में अनेक ऐसे उपाय हैं, जिनके माध्ययम से ऊर्जा ग्रहण करने और उनकी ध्वनि तरंगों के प्रभाव में आने से शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होता है। कुछ अक्षरों और शब्दों के उच्चारण से भी स्वाभाविक रूप में प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ती है। नतीजतन वीषाणु व जीवाणुओं से लड़ने में प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है। वेदकालीन सूर्य में सात प्रकार की किरणें और सूर्य रथ में सात घोड़ों के जुते होने का उल्लेख है। सूर्य रथ का होना और उसमें घोड़ों का जुता होना अतिरंजनापूर्ण लगता है।
हालांकि सूर्य रथ की कल्पना काल की गति के रूप में की गई। सात प्रकार की किरणों को खोजने में आधुनिक वैज्ञानिक भी लगे हैं। नए शोधों से ज्ञात हुआ है कि सूर्य किरणों के अदृश्य हिस्से में अवरक्त और पराबैंग्नी किरणें होती हैं। भूमण्डल को गर्म रखने और जैव रासायनिक क्रियाओं को तेज रखने का कार्य अवरक्त किरणें और जीवधारियों के शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का काम पराबैंग्नी किरणें करती हैं। वेदकालीन सूर्यलोक में दो देवियों की भी कल्पना की गई है।
वैदिक धर्म-ग्रंथों के अनुसार पृथ्वी के उत्पत्ति के समय पैदा हुई सबसे पहली ध्वनि ‘ऊं’ थी। इसने समूचे ब्रह्माण्ड को प्रतिध्वनित कर दिया था। इस ध्वनि के प्रभाव का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में ऊं के माध्यम से न केवल शारीरिक विकार दूर किए जा रहे हैं, बल्कि नशे के गर्त में डूबे युवाओं को भी उचित राह पर लाया जा रहा है। ब्रिटेन से प्रकाशित 2007 के ‘साइंस’ जनरल में एक लंबे शोध के बाद ऊं की महिमा स्वीकार की गई है। यह शोध रिचर्स एंड एक्सपेरिमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूरोसाइंस के प्रमुख जे मॉर्गन और सहयोगियों द्वारा 2500 पुरुषों व 2000 महिलाओं पर किया गया था।
इस निष्कर्ष में खासतौर से ऊं का जाप रामबाण औषधि मानी गई है। इसीलिए हमारे यहां दिनचर्या में शंख फूंकने व घंटा-घड़ियाल बजाने का विधान है। एक बार शंख फूंकने से जहां तक उसकी ध्वनि जाती है, वहां तक बीमारियों के वायुमंडल में मौजूद रोगाणु या तो नष्ट हो जाते हैं या फिर निष्क्रिय। जाने-माने वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने इस सत्य को वाद्य-यंत्रों द्वारा प्रमाणित किया था। दरअसल ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले ही जान लिया था कि ऊं के उच्चारण से प्राणवायु (ऑक्सीजन) शरीर के भीतर जाती है। शेष सभी उच्चारणों में प्राणवायु बाहर आती है। ऊं में अंतरनिर्हित अक्षरों में जब हम ‘अ’ का उच्चारण करते हैं तो हमारे ब्रह्मरंध्र से लेकर कंठ तक स्पंदन होता है। ‘उ’ के उच्चारण से कंठ से लेकर नाभि तक और ‘म’ के उच्चारण से नाभि से लेकर पैरों तक का भाग कंपायमान हो उठता है। यह कंपायमान शरीर से रोगों को दूर करता है।
आजकल मंत्रों में र्निहित ऊर्जा को पढ़ने की कोशिश मुंगेर के योग विश्व-विद्यालय में की जा रही है। दुनिया के चुनिंदा 50 विश्व-विद्यालयों के 500 वैज्ञानिक कण-भौतिकी (क्वांटम फिजीक्स) पर शोध कर रहे हैं। इस शोध के केंद्र में ‘टेलीपोर्टेशन आॅफ क्वांटम एनर्जी’ विषय है। शोध के इस केंद्र में भारतीय योग, ध्यान परंपरा व पूजा-पाठ में उपयोग में लाए जाने वाले वाद्य-यंत्रों से होने वाले ‘नाद’ का अनुसंधान भी है। इस शोध के दौरान मंत्रों के उच्चरण से उत्पन्न ऊर्जा को क्वांटम मशीन के जरिए मापा भी गया है।
शोध के नेतृवकर्ता स्वामी निरंजन सरस्वती का कहना है कि ‘क्वांटम मशीन’ विज्ञान जगत में अपने तरह का अनूठा यंत्र है। इसके सम्मुख जब महामृत्युंजय मंत्र का उच्चारण किया गया तो इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न हुई कि इसमें लगे मीटर का कांटा अंतिम बिंदु पर पहुंचकर थिरकने लगा। यह गति इतनी तीव्र थी कि यदि यह मीटर अर्द्धगोलाकार की जगह गोलाकार होता तो कांटा कई चक्कर लगा चुका होता। इस नाद या ‘घोष’ का अर्थ है कि संसार की सभी जड़ एवं चैतन्य सरंचनाएं स्पंदित ऊर्जा की निरंतर क्रियाएं हैं।’ साफ है, सूर्य की रोशनी और ध्वनितरंगें अदृश्य रोगाणुओं से बचाव का सार्थक उपाय हैं।
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