जब गर्मी चरम पर नहीं है तब आग का यह बेकाबू दृश्य माथे पर बल डालता है। कैसे इस भीषण तबाही से बचा जाये साथ ही भारी वन सम्पदा को कैसे बचाया जाये तमाम ऐसे सवाल जलते वन में अनायास ही उग गये हैं। हालांकि सवाल पुराना है मगर हर बार नया बनकर क्यों उभरता है यह सभी को समझने की आवश्यकता है। जो आग मई-जून में भड़कती थी उसका मार्च-अप्रैल में होना कहीं ग्लोबल वार्मिंग से सीधा सरोकार तो नहीं। वैसे रियो पृथ्वी सम्मेलन 1992 में जंगल में फैलने वाली आग से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं पर दशकों पहले चर्चा हो चुकी है जिसमें यह स्पष्ट है कि भूमि के अनियंत्रित ह्रास और भूमि का दूसरे कामों में बढ़ता उपयोग, मनुष्य की बढ़ती जरूरतें, कृषि विस्तार समेत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली तमाम प्रबंधकीय तकनीक वनों के लिए खतरा पैदा कर रही है। क्षेत्र विशेष के अनुपात में घटनाओं का संदर्भ भिन्न हो सकता है मगर जंगल की आग पर नियंत्रण पाने के अपर्याप्त साधन बताते हैं कि मानव कितना बौना है। अनियंत्रित आग और बेतरतीब तरीके से पानी की बबार्दी जीवन विन्यास में अस्तित्व मिटने जैसा है। मगर विडम्बना यह है कि दोनों पर काबू पाना मानो मुश्किल हो चला है। शान्त और शीतल उत्तराखण्ड की वादी इन दिनों तपिश से घिर चुकी है। कुमायूँ के जगलों में तो लगी आग से अत्यधिक धुंध हो गया है। केन्द्र के द्वारा भेजे दो हेलीकॉप्टर भी सफल होते नहीं दिखे। गौरतलब है कि एक हेलीकॉप्टर गढ़वाल तो दूसरे कुमायूँ मण्डल में आग बुझाने के लिए तैनात किये गये। टिहरी झील से पानी लेकर गढ़वाल में तैनात हेलीकॉप्टर ने 6 राउंड जरूर लिए पर कुमायूँ में एक भी उड़ान नहीं भर पाया।
भारत के लगभग 8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन हैं इनमें से लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में किसी न किसी तरह के वन पाये जाते हैं। कई तरह की जैव विविधता मिलती है। उत्तराखण्ड में कुल क्षेत्रफल का करीब 65 प्रतिशत वन क्षेत्र हैं जिसमें करीब 16 से 17 फीसद जंगल चीड़ के हैं। इन्हें जंगलों में आग के लिए मुख्यत: जिम्मेदार माना जाता है। इस साल की शुरूआत में यहां बारिश भी घटी है बारिश 50 मिलिमीटर की जगह 10 मिलिमीटर ही हुई है। जंगलों में आग लगने के कारण भी इसे एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बारिश न होने या कम होने से जमीन में आर्द्रता कम होती है जिसके चलते पेड़-पौधे जल्दी ही आग पकड़ लेते हैं। उत्तराखण्ड में आग जिस तरह बेकाबू है वह सरकार को भी रणनीतिक तौर पर काफी परेशान किये हुए है। इसे बुझाने के लिए हेलीकॉप्टर का सहारा लेना या फिर बारिश का होना सहायक होता है। गौरतलब है कि जंगल की आग पर काबू पाने के लिए 8 हजार फायर वॉचर की तैनाती की बात भी देख सकते हैं।
ध्यानतव्य हो कि साल 2016 में जब उत्तराखण्ड के जंगल जल रहे थे जो अपने आप में एक बड़ी घटना थी जिसमें पूरे 13 जिले इसकी चपेट में थे। गढ़वाल मण्डल में आग बेकाबू थी जैसा कि इन दिनों है। उन दिनों भी हजारों हेक्टेयर से अधिक की वन सम्पदा जल कर राख हो चुकी थी। कार्बेट नेशनल पार्क का करीब 3 सौ हेक्टेयर का क्षेत्रफल भी इसकी भेंट चढ़ चुका था। आग बुझाने में हजारों फायरकर्मी के साथ गांव के हजारों प्रशिक्षित लोग भी शामिल थे। एमआई-17 हेलीकॉप्टरों से जंगलों पर पानी छिड़का जा रहा था। साफ है कि आग की घटनायें हर साल कमोबेश होती रहती हैं पर सवाल है कि इसको रोकने और काबू पाने में रणनीतिक तौर पर सरकार कितनी सफल रहती है। फिलहाल उत्तराखण्ड जल रहा है और आग पर काबू पाने की कोशिश जारी है।
भारतीय जंगल सर्वेक्षण की पड़ताल बताती है कि जंगलों में आग लगने की घटना के मामले में ओडिशा देश में पहले नम्बर है जहां 22 फरवरी से 1 मार्च के बीच 5291 अग्निकांड की घटनाएं हुर्इं जो किसी भी राज्य की तुलना में तीन गुना अधिक है। तेलंगाना दूसरे और मध्य प्रदेश अग्निकांड घटना के मामले में तीसरे स्थान पर है, चौथे पर आन्ध्र प्रदेश है। उत्तराखण्ड में जिस तरह के आंकड़े हैं वह संख्या के लिहाज से भले ही कम हो मगर एक छोटे हिमालयी प्रान्त में अग्निकाण्ड की हुई घटनायें कमतर नहीं कही जा सकती। हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान सरकार को निर्देश दिया कि वह अग्निशमन आदि हेतु एनडीआरएफ और एचडीआरएफ को पर्याप्त बजट भी उपलब्ध कराये। हालांकि जंगलों में आग लगने के बहुत से कारण बताये गये हैं जिसमें मानवजनित समेत कई शामिल हैं। सबके बावजूद लाख टके का सवाल यह है कि आग कैसे भी लगी हो इस पर काबू पाने के लिए समय रहते सरगर्मी क्यों नहीं दिखाई गयी।
जंगल में लगी आग को आर्थिक और पारिस्थितिकी दृश्टि से देखने की आवश्यकता है। पहाड़ के जंगलों में आग लगना एक स्थायी समस्या है ऐसा मानना सही नहीं है। इससे भी उदासीनता बढ़ती है। हालांकि जंगल में आग की यह घटनायें दुनिया में कहीं न कहीं देखने को मिलती रहती हैं और सभी को इससे निपटने के अपने उपाय खोजने होते हैं। जंगल में आग अर्थव्यवस्था को भी नाजुक करता है। वन संरक्षण अधिनियम 1980 और राश्ट्रीय वन नीति 1998 को भी कहीं न कहीं चोट पहुंचाता है। ऐसे में जरूरी है कि जंगल को आग से बचाया जाये और इसके लिए ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
डॉ. सुशील कु मार सिंह
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