चाचा करोड़ीमल हमारे मोहल्ले के सबसे वृद्ध व्यक्ति हैं। शरीर पर वस्त्र के नाम पर एक अदद धोती, और कंधे से कमर तक एक बड़ा सा जनेऊ पड़ा रहता है । वह जहाँ कहीं भी जाते हैं , उनकी प्यारी प्यारी लाठी, परछाई की तरह उनके साथ ही जाती है। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वह गांधी जी के शुद्ध चेले हों। उनका नाम तो करोड़ीमल है, लेकिन हैं वह एक नंबर के कंजूस! उनकी धोती की अन्टी में से रूपए निकलवाना एक बहुत बड़ी बात है। किसी भी त्योहार आदि में लोग उनसे मिलने जाते हैं, तो चच्चा उनका स्वागत तो बहुत अच्छे ढंग से करते हैं, लेकिन मिठाई या पकवान से नहीं, बल्कि अपनी मीठी मीठी बातों से सबका मन जीतते हैं। उन्हें होली के हुड़दंग से सख्त नफरत है । इसलिए वह उस दिन अपने घर से बाहर ही नहीं निकलते।
इस बार भी होली आई। होली वाले दिन चच्चा अपनी आदत के अनुसार घर की चारदीवारी में कैद हो गए। परन्तु इस बार मोहल्ले भर के बच्चों ने मिलकर एक योजना बनाई थी कि किसी भी कीमत पर चच्चा को होली के हुड़दंग के दर्शन अवश्य कराएँगे । रंग चलना शुरू हुए दो घंटे बीत चुके थे। सूरज धीरे-धीरे सिर के ऊपर आ रहा था। परन्तु चच्चा अभी भी अपनी चारपाई पर पसरे मीठ-मीठे सपनों की दुनिया में सैर कर रहे थे। एकाएक बाहर से आवाज आई,-‘चच्चा …चच्चा….बचाओ…ये लोग मुझे कींचड़ में डुबोने जा रहे हैं ….!’
चीख को सुनकर चच्चा तुरंत सपनों की दुनियां से पृथ्वी पर आ गिरे। अभी वह अपनी आँखें मलते मलते यह सोच ही रहे थे कि कहीं वह अभी भी सपना तो नहीं देख रहे हैं, कि चीख फिर गूंजी। अब तो उन्हें विश्वास हो गया कि यह सपना नहीं, सच्चाई है। वह तुरंत अपनी चारपाई से उठे और उस संकट में पड़े बच्चे की सहायता करने चल पड़े। लेकिन वह कुछ कदम चलकर अचानक रुक गए। उन्हें ध्यान आया कि यदि वह घर से बाहर निकले तो रंग दिए जाएंगे। अब एक ओर तो उन्हें रंग जाने का डर था वहीं दूसरी ओर एक बच्चे की सहायता का प्रश्न था। बेचारे चच्चा समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें? मन ही मन इन कींचड़ उछालने वालों को कोसते हुए सोच रहे थे,-‘पता नहीं कैसे कैसे लोग हैं? यदि किसी की आंख में कीचड़ चला जाए तो…? क्षणिक मनोरंजन के लिए सारी जिन्दगी किसी को अंधा कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है भला? लेकिन इन मूर्खों को कौन समझाए? ऐसा भी तो हो सकता है कि ठंडे ठंडे पानी से किसी को सर्दी लगकर निमोनिया हो जाए।’
अभी वह यह सब बातें सोच ही रहे थे कि बाहर से फिर चीख उनके कानों से आकर टकराई। अब तो वह बहुत घबराए। उन्होंने सोचा,-‘इस बच्चे के साथ भी वही हुआ जो कि अभी मेरे दिमाग ने सोचा था, तब तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा।’ उनका दिल मोम की तरह पिघल चुका था। उन्होंने बिना कोई पल खोए दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलने की देर थी कि बच्चों की टोली ने उन पर रंगों से भरी पिचकारियाँ दागनी शुरू कर दीं। बेचारे चच्चा अपनी ऐनक सँभालते हुए अन्दर भागे। उनके पीछे पीछे बच्चों की टोली भी ‘बुरा न मनिओ चच्चा….आज तो होली है…के नारे लगाते हुए अन्दर पहुंच गए। अन्दर जाकर बच्चों ने उनको चारो ओर से घेर लिया। और फिर चच्चा की वो हालत हुई कि पूछो मत! कुछ ही मिनटों में वह किसी भूत से कम नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन इतने सारे बच्चों के सामने अकेले चच्चा की कैसे चल सकती थी? बेचारे चुपचाप खड़े खड़े विभिन्न रंगों से स्नान करते रहे।
जब बच्चों के पास सारा रंग खत्म हो गया तो वे चच्चा के सामने चुपचाप खड़े हो गए। कुछ क्षण बाद उनमें से एक छोटी सी लड़की पिंकी ने धीरे से अपनी तोतली भाषा में कहा,-‘तत्ता दी, हमें माफ तर देना। हम लोदों ने आपतो धोखा दिया। लेतिन हम तब इतते बिना आपते होली नहीं खेल सतते थे। नन्हें मुख से नन्हीं-सी बात को सुनकर चच्चा फूलकर कुप्पा हो गए। अपने पोपले मुँह पर हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोले,-‘अरे बच्चों, इसमें माफी की कोई बात नहीं है। तुम लोगों ने आज मुझे यह समझा दिया है कि होली खेलने की खुशी क्या होती है? इसीलिए मैं तुम सबको रूपए देता हूँ। शाम को लल्लू हलवाई के यहाँ जाकर मिठाई खा लेना। और वास्तव में चच्चा करोड़ीमल ने अपनी अंटी में से रूपए निकालकर बच्चों को बाँटना शुरू कर दिए।
– डॉ. देशबन्धु ‘शाहजहांपुरी’
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