गिरावट के प्रतीक के रूप में आज परिवार खंडित हो रहा है, वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, आपसी भाईचारे में दुश्मनी एवं हर तरह के रिश्तों में कानूनी और सामाजिक झगड़ों में वृद्धि हुई है। आज सामूहिकता पर व्यक्तिवाद हावी हो गया है। इसके कारण भौतिक उन्मुक्ता प्रतिस्पर्धी और अत्यधिक आकांक्षा वाली पीढ़ी तथाकथित जटिल पारिवारिक संरचनाओं से संयम खो रही है। जिस तरह व्यक्तिवाद ने अधिकारों और विकल्पों की स्वतंत्रता का दावा किया है। उसने पीढ़ियों को केवल भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में जीवन में उपलब्धि की भावना देखने के लिए मजबूर कर दिया है। गत दिवस पंजाब के जिला बठिंडा में एक पुत्र ने जमीन के विवाद में अपनी मां की हत्या कर दी।
इसी तरह एक अन्य नशेड़ी पुत्र ने पिता की हत्या कर दी। नशे पर काबू हो गया जैसे सरकारों के ब्यान हैरान करने वाले हैं, लेकिन नशे के लिए पैसा नहीं मिलने पर एक पुत्र अपने पिता की हत्या कर देता है। एक व्यक्ति के जीवन की कीमत से ज्यादा भूमि की कीमत हो गई है। जमीनों के लिए धोखाधड़ी व हत्याएं रोजाना की बात हो रही हैं, टूट रहे रिश्तों की चिंता कहीं नजर नहीं आ रही। सरकार के लिए मानो सामाजिक सोहार्द कोई विषय ही नहीं रहा, सरकार इन मुद्दों को सामाजिक, पारिवारिक या निजी मुद्दा मान रही हैं। संस्कृति, आधुनिकता व विकास में कोई तालमेल नहीं रहा।
संस्कृति केवल धर्म को कट्टर रूप में मानना नहीं बल्कि भाईचारे को बढ़ावा देना है। दरअसल विकास और संस्कृति को वास्तव में अलग कर दिया गया है केवल बाहरी धार्मिक पहनावे को ही संस्कृति मानने की भूल ही समाज के लिए खतरा बन रही है। व्यवस्था ने व्यक्ति को केवल एक उपभोक्ता या ग्राहक बना दिया है जहां भावनाओं, रिश्तों का कोई मूल्य नहीं रह गया। लोग खूब धन इक्टठा करते हैं, लेकिन जब कोई घाटा पड़ता है तब परिवार सहित खुदकुशी कर लेते हैं। कई बार देखा जाता है जो व्यक्ति अकेले होते हैं या अकेले रहते हैं किन्हीं दु:ख या परेशानियों की वजह से डिप्रेशन में आकर आत्महत्या कर लेते हैं, क्योंकि उनके पास कोई परिवार नहीं, जिससे वह अपने दिल की बात कहें। ऐसा सामाजिक विज्ञान है कि बातें शेयर करने से दिल हल्का हो जाता है और दिल को सुकून भी मिलता है।
लेकिन जब परिवार ही नहीं होगा तो व्यक्ति किसे अपनी बात कहेंगें? इसलिए परिवार का होना बहुत जरुरी होता है। परिवार के साथ रहते हुए हम बड़ी से बड़ी कठिनाइयों का सामना आसानी से कर सकते हैं। दरअसल धर्म व समाज का रिश्ता टूट गया है। धर्म को केवल बाहरी प्रदर्शन तक सीमित कर दिया गया है या केवल खानापूर्ति बना लिया गया है। धर्म को केवल कुछ भौतिक वस्तु मांगने या इच्छाएं पूरी करने का स्त्रोत समझ लिया गया है। वास्तव में धर्म वह है जो मनुष्य के दिलोदिमाग को सुकून, संतोष, भाईचारा, अहिंसा को अहमियत देने वाला है, जिन्हें न कोई सीखना चाह रहा है न मानना चाह रहा है।
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