पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि मामले में पटियाला हाउस कोर्ट ने पुलिस के साथ-साथ मीडिया को भी जिम्मेदारी से काम करने के कड़े आदेश दिए। अदालत ने यहां तक कह दिया है कि पुलिस को आधी-अधूरी और अनुमानों पर आधारित जानकारी मीडिया के सामने परोसने से बचना चाहिए। साथ ही कोर्ट ने मीडिया हाउसों को चेतावनी देते हुए कहा कि वो कुछ भी ऐसा न करें जिससे जांच प्रभावित हो। उनका कंटेंट आक्रामक और स्कैंडल जैसा न हो। कोर्ट ने कहा कि खबरों पर एडिटोरियल कंट्रोल किया जाना बेहद जरूरी है। दरअसल बीते 2-3 दशकों से मीडिया में ऐसा पतन आया है कि पत्रकार या टीवी एंकर खुद ही जज की भूमिका ही निभाने लगे हैं। तथ्यों की जांच व शब्दों का प्रयोग करने के प्रति गंभीरता कहीं नजर नहीं आती। समाचार को संपादकीय लेख की तरह बना दिया जाता है।
आरोपी को दोषी की तरह पेश किया जा रहा है। इसी कारण मीडिया ट्रायल जैसे शब्द प्रचलित हुए हैं। गत माह में अभिनेता सुशांत की मौत का मामला मीडिया ने इस प्रकार उठाया कि आरोपी रिया चक्रवर्ती को दोषी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीडिया ने तब तक इस मामले का पीछा नहीं छोड़ा, जब तक उसने हाथ न जोड़ दिए। चिंताजनक बात यह है कि पत्रकारिता के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। मामलों में कई बार एफआईआर भी दर्ज नहीं हुई होती कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर पूरा दिन ऐसी स्टोरी चलाई जाती हैं जैसे निर्णय का दिन आ गया हो। मीडिया की विश्वसनियता पर सवाल उठ रहे हैं।
एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में बै्रकिंग न्यूज दिखाने से पहले उनके तथ्यों व संपूर्ण जानकारी का इंतजार तक नहीं किया जाता। रोजाना कोई न कोई बड़ी फेक न्यूज सामने आती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बेबुनियाद खबरें समाज के हित में नहीं हैं। जनता भी जागरूक हो गई है और मीडिया संस्थानों का विशलेषण करती है। आज कल तो जनता भी मीडिया संस्थाओं पर व्यंग्य कस रही है। नि:संदेह मीडिया की घट रही प्रतिष्ठा को बचाने के लिए मीडिया संस्थानों को ही पहल करनी होगी। संयम और मर्यादा को अपनाना होगा। समाज के प्रति मीडिया की बड़ी जिम्मेदारी है। किसी एक पक्ष की बोली बोलने की बजाय तथ्यों की जांच कर शब्दों की मर्यादा को कायम रखा जाए।
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