सुशासन विश्व बैंक द्वारा निर्गत एक अवधारणा है, जिसकी परिभाषा कहीं अधिक आर्थिक है। लोक कल्याण को पाने के लिए आर्थिक पहलू को सजग करना सरकार का सकारात्मक कदम होता है, मगर विनिवेश का यह तात्पर्य नहीं कि मुनाफे की कम्पनियों को भी दर-बदर कर दिया जाये।
1989 की फ्रॉम स्टेट टू मार्केट की रिपोर्ट में भी सरकार के दखल को कम करने और बाजार के विस्तार को इंगित करने का संकेत साफ-साफ दिखता है। 1991 का उदारीकरण आर्थिक सुशासन का एक बड़ा परिमाप था पर विनिवेश से दूर था। वैसे भारत में विनिवेश का इतिहास बाल्को कम्पनी जो घाटे में थी से शुरू होता है तब यह पहल तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और पहली बार इसके लिए विनिवेश मंत्रालय बनाया गया था। मगर 2004 में मंत्रालय समाप्त कर दिया गया। मौजूदा मोदी सरकार विनिवेश पर पूरा जोर लगा रही है।
वित्त मंत्री ने 1 फरवरी 2021 में बजट पेश करने के दौरान शीघ्र ही एलआईसी का आईपीओ लाने की बात कही है। गौरतलब है कि देश में सबसे बड़ा आईपीओ लाने की बात तेज हो गयी है। वहीं माना जा रहा है कि अगले वित्त वर्ष में सरकार बीपीसीएल और एयर इण्डिया में भी अपनी हिस्सेदारी बेच सकती है। प्रमुख बंदरगाह न्यास, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण समेत नोटों व सिक्कों की छपाई-ढलाई में लगी कम्पनियों जैसे चुनिंदा सरकारी उपक्रम रणनीतिक विनिवेश नीति के दायरे से बाहर रखे गये हैं। बजट में आत्मनिर्भर भारत के तहत नई सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश नीति की घोषणा की गयी। जिन उपक्रमों का विनिवेश करने का प्रस्ताव है, उनमें केन्द्रीय सार्वजनिक बैंक और सरकारी बीमा कम्पनियां शामिल हैं।
गौरतलब है साल 2020 के बजट में विनिवेश के जरिये 2 लाख 10 हजार करोड़ रूपए कमाने का लक्ष्य तय किया गया था लेकिन कोरोना की वजह से मोदी सरकार चालू वित्त वर्ष में विनिवेश के जरिये कमाई के ये लक्ष्य अभी तक पूरे नहीं कर पायी है। हालांकि फरवरी और मार्च इस वित्त वर्ष का शेष है पर खास यह भी है कि अभी तक तय लक्ष्य का सिर्फ 20 फीसद ही कमाई हो पायी है और यह आंकड़ा यदि 40 हजार करोड़ तक ही रह जाता है जो कि हो सकता है तो यह पिछले 5 साल में विनिवेश के जरिये कमाई का सबसे कम आंकड़ा होगा। स्पष्ट है कि आर्थिक सुशासन की राह उबड़-खाबड़ ही रह सकती है जबकि 2021 का बजट में राजकोषीय घाटा आसमान छू रहा है।
जिन अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में कमी, प्रति व्यक्ति आय में गिरावट और जनसंख्या आधिक्य के साथ गरीबी व बेरोजगारी उठान लिये हो, सामान्यत: उसे विकासशील अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया गया है। मगर भारत जिसकी अर्थव्यवस्था मौजूदा समय में लगभग तीन ट्रिलियन डॉलर की हो और 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की उम्मीद लिये हो। वहां आर्थिक सुस्ती, मंदी, जीडीपी में गिरावट, रोजगार का छिन जाना समेत कई नकारात्मकता के चलते अर्थव्यवस्था रूग्णावस्था में हो, बात पचती नहीं है।
वर्तमान अर्थव्यवस्था को कोविड-19 ने जो मार दी है उसके चलते आर्थिक सुशासन कहीं और चोटिल हुआ है। सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया विनिवेश का डिसइन्वेसटमेंट कहलाती है। कई कम्पनियों में सरकार की काफी हिस्सेदारी है। अक्सर आम बजट में सरकार वित्त वर्ष के दौरान विनिवेश का लक्ष्य तय करती है। ऐसा ही लक्ष्य 1 फरवरी 2021 के बजट में आगामी वित्त वर्ष में भी एक लाख 75 हजार करोड़ की उगाही का लक्ष्य रखा गया है।
गौरतलब है कि साल 2019 में विनिवेश को लेकर सरकार ने कुछ प्रक्रियागत कदम उठाने की बात की थी। बड़ी बात यह है कि नॉर्दन-ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन में सौ फीसद विनिवेश जबकि कॉनकॉर में 30.8 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने का फैसले वाला इरादा बताता है कि लाभ वाली सरकारी कम्पनियों में भी विनिवेश का पहल बाकायदा निहित है। भारत पेट्रोलियम समेत 5 कम्पनियां भी विनिवेश की राह पर रही हैं।
दरअसल उस दौर में मुनाफे में चल रही भारतीय पेट्रोलियम का हिस्सा बेचने से मिलने वाली 60 हजार करोड़ की मोटी रकम पर सरकार की नजर थी और इन सभी का विनिवेश मार्च 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था। तब 1 लाख करोड़ रूपए से कुछ अधिक हासिल करने का संदर्भ था जो एक महीने की जीएसटी के रकम के आस-पास है।
कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है और खर्च बेशुमार बढ़ा है पर इन सबके बाद एक सुखद बात यह है कि दिसम्बर 2020 में जीएसटी से वसूली एक लाख 15 हजार करोड़ से अधिक और जनवरी 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 20 हजार करोड़ को पार कर गया। 1 जुलाई 2017 से अब तक यह आंकड़े रिकॉर्ड स्तर को पार करते हैं। जाहिर है इसी दिन और वर्ष जीएसटी पहली बार देश में लागू हुआ था। इस बार तो आर्थिक सुशासन बेपटरी है, ऐसे में इस खामी की भरपाई के लिए सम्भव है कि विनिवेश प्रक्रिया तेज होगी और धन जुटाने में सरकार कोई कोर-कसर शायद ही छोड़े।
इसका एक बड़ा उदाहरण देश में डीजल और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों को भी देखा जा सकता है। इन दिनों तेल की बिकवाली रिकॉर्ड महंगाई पर है और केन्द्र सरकार जहां लगभग 33 रूपए एक्साइज ड्यूटी एक लीटर पेट्रोल पर वसूल रही है तो वहीं 19 रूपए राज्यों द्वारा वसूले जाने वाला वैट जनता के आम जीवन पर व्यापक असर डाल चुका है। इस समय तेल का खेल जिस कदर विस्तार लिया है सरकार का खजाना भर रहा है और जनता कराह रही है।
ये जाहिर है कि केन्द्र सरकार ने अपने वायदे के मुताबिक सरकारी कम्पनियों ने अपने विनिवेश का फैसला किया है। असल में सरकार का मकसद है बिगड़ी आर्थिक स्थिति को स्वस्थ करने के लिए अपनी हिस्सेदारी कम कर लिया जाये और मन-माफिक फण्ड जुटा लिया जाये लेकिन दुविधा यह भी है कि जब सरकार की हिस्सेदारी गिरेगी तो कई और मामलों में प्रभाव पड़ेगा मसलन कामगारों में छंटाई और आउटसोर्सिंग समेत ठेका व्यवस्था में बढ़ोत्तरी हो सकती है इससे नई नौकरियों की संख्या में गिरावट और पुराने कामगारों के बेरोजगार होने का संकट बन सकता है।
ऐसे में सरकार को अपने नागरिकों की चिंता के लिए विनिवेश के साथ ऐसे भी नियम रखने की आवश्यकता है ताकि इस प्रकार के संकट से बचा जा सके। वैसे देखा जाये तो आर्थिक सुशासन जब तक मजबूत नहीं होगा तब तक लोक कल्याण की राह समतल नहीं होगी। ऐसे में घाटे में चल रही कम्पनियों का विनिवेश गैर वाजिब नहीं है पर मुनाफे की कम्पनियों के विनिवेश का अपना एक साइड इफेक्ट हो सकता है।
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