सरकार बताए, कृषि सुधारों का वक्त आ गया

क्या वक्त आ गया था कि किसानों के विरोध की फिक्र न करते हुए सरकार ने इन सुधारों में हाथ डाला है। वह भी तब जब देश के अन्य क्षेत्रों में वांछित सुधार पहले ही लागू हो चुके, सिर्फ कृषि क्षेत्र ही बचा था।

किसान आंदोलन दिन-ब-दिन जिस तरह से आगे बढ़ रहा हे, उससे यहां देश के आंतरिक मामलों में बाहरी देशों की दिलचस्पी बढ़ रही है वहीं देश में भी अशांति का माहौल बन रहा है। पूरा देश सोशल मीडिया पर किसान हित व किसान विरोध की बहस में उलझा पड़ा है। सरकार को चिंता है कि किसान अगर विरोध करते हुए दिल्ली में घुस गए तो हालात बेकाबू हो सकते हैं, जिससे बचाव के लिए सरकार किसान धरनों के पास दिल्ली आने वाले रास्तों पर कील, ब्लेड तार, कंक्रीट के बेरीकेड खड़े कर रही है एवं कच्चे रास्तों पर गड्ढे खोद रही है। किसान भले ही अपना आंदोलन शांतिपूर्ण चलाने के लिए कटिबद्ध हैं परन्तु 26 जनवरी के दिन लाल किले में घुसकर कुछ उपद्रवियों ने जैसे अराजकता फैलाने की कोशिशें की हैं उससे शांतिपूर्ण आंदोलन कब हिंसक हो उठे कुछ कहा नहीं जा सकता।

आंदोलन को करीब चार महीने का वक्त हो गया है सौ से ज्यादा किसान धरनों पर या आंदोलन में भाग लेने जाते वक्त अपनी जान दे चुके हैं। इतना ही नहीं सरकार व किसान 11 बार बातचीत कर चुके हैं फिर भी हल नहीं निकल सका। न सरकार पीछे हटना चाहती है न ही किसान जिद्द छोड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी सुनवाई कर चुका है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी भी एक तरफ कर दी गई है, मुद्दा सरकार की जिद्द से भी बड़ा बनता जा रहा है। हालांकि सरकार किसानों को समझाने की भरसक कोशिशें कर रही है लेकिन यहां एक सवाल बहुत गंभीर खड़ा हो गया है कि क्या सरकार का सरकार होना ही सब कुछ है? यहां किसान किसी भी विपक्षी राजनीतिक दल को अपने अगुआ नहीं बना रहे ऐसे में सरकार क्यों आंदोलन को राजनीतिक नजरिये से देख रही है? भले ही आंदोलन में बार-बार गैर-किसानों ने हस्तक्षेप करना चाहा है लेकिन किसानों ने साफ कहा है कि मुद्दा उनके रोजगार, उनके भविष्य व आम देशवासी का है, फिर भी सरकार क्यों अपने कर्तव्यों की अनदेखी कर रही है?

सरकार पर आखिर ऐसा कौन सा दबाव है जो सरकार बिल वापिस लेने के लिए सोचना भी नहीं चाह रही? विपक्षी राजनीतिक दलों का काम है सरकार के हर काम को गलत सिद्ध करना या विरोध करना लेकिन किसान का मुद्दा विपक्षी राजनीति से ऊपर उठ चुका है। अगर सरकार के पास कोई ऐसा रोडमैप है जिसके सहारे वह देश की खेती में निवेश बढ़ाकर देश को एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति या सैन्य ताकत या उन्नत कृषि राष्टÑ में बदलना चाह रही है तब देश की कुल कृषि भूमि, देश में उपज रही पूंजीगत व गैर-पूंजीगत फसलों, व्यवसायिक खेती से आने वाले राजस्व, व्यवसायिक खेती से आने वाली विदेशी मुद्रा, देश में पैदा होने वाले रोजगार आदि पर अपना विस्तृत ब्यौरा देश के सामने रखे और स्पष्ट करे कि वक्त आ गया था किसानों के विरोध की फिक्र न करते हुए सरकार ने इन सुधारों में हाथ डाला है। वह भी तब जब देश के अन्य क्षेत्रों में वांछित सुधार पहले ही लागू हो चुके, सिर्फ कृषि क्षेत्र ही बचा था। अगर सरकार समझती है कि देश उसकी बात समझ सकता है तब दिल्ली की घेराबंदी छोड़ सरकार को देश के बाकी वर्गों को समझाना चाहिए जो किसान को राजी कर सकें कि कृषि सुधार के बिल लागू होना क्यों जरूरी है।

 

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