पूर्व कार्यकाल की पेंशन उन्हीं प्रतिनिधियों को मिलनी चाहिए जो पूर्व सांसद या विधायक हो चुके और किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं। जब कोई जनप्रतिनिधि एक-दो या चार कार्यकाल के बाद फिर चुना जाता है तब उसे उस कार्यकाल की तनख्वाह एवं भत्ते दिए जाएं और उसकी पेंशन को रोक लिया जाए। चूंकि पूरे देश में कार्यरत सांसदों एवं विधायकों को पेंशन देने पर देश का अरबों रुपये खर्च हो जाता है।
संसद की कंटीन पर संसद सदस्य परोसे जाने वाले खाने से सब्सिडी हटाकर सरकार ने फिजूलखर्ची को रोका है जिसकी कि कई संसद, आम नागरिक काफी समय से मांग कर रहे थे। भले ही ये सब्सिडी सालाना 8.10 करोड़ रुपये थी, लेकिन जिस देश में आम नागरिक जिसकी सालाना आय दो से अढ़ाई लाख रूपये है वह गैस सिलेंडर पर सब्सिडी छोड़ रहा है, आम नागरिकों की थाली में खाने की कीमत बाजार कीमतें तय कर रही हैं तब संसद में यहां सांसद, संसद के कर्मचारी जिन्हें हजारों से लेकर लाखों रुपये प्रतिमाह वेतन, पेंशन, भत्ते मिल रहे हों उन्हें खाने पर सब्सिडी देश की सवा सौ करोड़ आबादी से भेदभाव था। खाने के अलावा अन्य कई मद और भी हैं यहां से फालतू खर्चों में सरकार को कटौती करनी चाहिए इनमें टेलीफोन, स्टेशनरी खर्च भी एक है।
जब पूरे देश में मोबाईल कंपनियां 50 रूपये से लेकर 150 रूपये में महीना भर अनलिमिटेड कॉलिंग दे रही हैं, देश में ईमेल, व्हाट्सएप व कम्पयूटर का दौर चल रहा है तब जहां जरूरत नहीं वहां पर स्टेशनरी टेलीफोन भत्तों के नाम पर हजारों रूपये खर्च करना फिजूल है। जनप्रतिनिधियों के पेंशन नियमों में भी सुधार किया जाना चाहिए। एक जनप्रतिनिधि जो दो बार या पांच बार या जितने ज्यादा कार्यकाल के लिए चुना जाता है उसकी पेंशन एक पर एक जोड़कर सरकारी खजाने पर बोझ डाला जाता है। जब किसी सांसद या विधायक को उसके मौजूदा कार्यकाल के लिए तनख्वाह, यात्रा, रिहाईश, फोन, सहायक सबका खर्च मिल रहा है तब उसे पूर्व के कार्यकाल की पेंशन क्यों? पूर्व कार्यकाल की पेंशन उन्हीं प्रतिनिधियों को मिलनी चाहिए जो पूर्व सांसद या विधायक हो चुके और किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं।
जब कोई जनप्रतिनिधि एक-दो या चार कार्यकाल के बाद फिर चुना जाता है तब उसे उस कार्यकाल की तनख्वाह एवं भत्ते दिए जाएं और उसकी पेंशन को रोक लिया जाए। चूंकि पूरे देश में कार्यरत सांसदों एवं विधायकों को पेंशन देने पर देश का अरबों रुपये खर्च हो जाता है। देश के जनप्रतिनिधियों की बहुत सी सुविधाएं औपनिवेशिक मानसिकता दर्शाती है। जबकि देश को आजाद हुए सत्तर साल से ऊपर हो चुके हैं। अभी संसद की कंटीन में सब्सिडी हटा लेने पर कई लोग तर्क दे रहे हैं कि वहां कर्मचारी एवं मीडिया कर्मी भी भोजन करते हैं जिनकी संख्या सैकड़ों में है।
यहां सवाल यह है कि कर्मचारियों को भर्ती के वक्त सरकार तनख्वाह, पदोन्नित एवं पेंशन का वायदा करती है, सिविल प्रशासन में ऐसी कोई भर्ती नहीं है यहां सरकार कर्मचारियों को सस्ते भोजन का वायदा करती हो, फिर कर्मचारियों को सस्ता भोजन देते रहने के तर्क क्यों? यहां तक मीडिया कर्मियों का सवाल है उन्हें भी उनके संस्थान अच्छी तनख्वाह देते हैं, फिर भी अगर कुछ मीडिया कर्मी हैं जो कोई तनख्वाह नहीं लेते या उनकी आय का कोई स्त्रोत नहीं है तब उन्हें संसद का लोकसंपर्क विभाग खाने के कूपन दे सकता है। लेकिन खाना पूरे देश में यहां जरूरत नहीं है खासकर सरकारी संस्थानों में बाजार मूल्य पर ही परोसा जाना चाहिए। भारत में आज भी करोड़ों लोग खाने की कमी से जूझ रहे हैं ऐसे में सुविधा सम्पन्न लोगों द्वारा मुफ्त के भाव खाना, खाना नाइंसाफी है।
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