आखिरकार एक राष्ट्र, एक विधि और समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का स्वाभाविक सिद्धान्त लागू क्यों नहीं हो सकता है।? यह राष्ट्रीय एकता का मूलाधार है। मजहबी लोग समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को अपने अपने निजी मजहबी कानूनों में हस्तक्षेप मानते हैं जबकि संविधान निमार्ता इस तथ्य से परिचित थे कि कोई कानून निजी नहीं होता। सभी कानून राज और समाज पर समान रुप से लागू होते हैं पर मजहबी लोग निजी कानून को राष्ट्रीय विधि मानने को तैयार नहीं होते हैं।
भारत देश की गत सत्तर साल की राजनीति में समान नागरिक संहिता का पेंच फंसा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय निरन्तर कई बार इस पर टिप्पणी कर चुका है कि संविधान में अनुच्छेद 44 में दर्ज तथा इतने वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया है। देश का यह दुर्भाग्य है कि शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे महत्वपूर्ण मामलों का निपटारा धर्म व मजहब के पर्सनल लॉ के मुताबिक किया जाता है।
भारत के प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी तथा विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निरन्तर समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करने की वकालत करते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के बाद अब यह मुद्दा फिर से गरमा गया है। हिन्दू लॉ 1956 में बनाया गया था। संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 44 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की बात की गई है। संविधान निमार्ताओं ने यह विश्वास व्यक्त किया था कि स्टेट सम्पूर्ण भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने के लिए प्रयास किए जाएंगे परन्तु संविधान लागू होने के सत्तर वर्ष में भी समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू नहीं किया गया है।
भारत के राज्य गोवा में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू है। गोवा में यह लागू होने से वहां मुस्लिम पुरुषों को बहु विवाह की इजाजत नहीं है। मुसलमानों को मौखिक तलाक का भी कोई प्रावधान नहीं है। 1985 में प्रसिद्ध शाहबानों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिल सकेगा। भाजपा पहले कार्यकाल में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का प्रयास कर चुकी है परन्तु वोट बैंक के लालच में अनुच्छेद 37०, तीन तलाक व सीएए पर काफी विवाद व विरोध विपक्षी दलों ने किया था।
संविधान कहता है कि सरकार अनुच्छेद 44 में वर्णित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के बारे में विचार करे। देश की सरकार के लिए अभी यह बाध्यकारी नहीं है। भारत में विवाह, उत्तराधिकार तथा तलाक जैसे मुद्दों पर पर्सनल लॉ को लागू करना ठीक नहीं है। उसी के लिए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) बनाई जाए। इस पर बहस चल रही है परन्तु राजनीतिक दलों के वोट बैंक के लालच में इस पर सार्थक कोई पहल नहीं हो सकी है।
विश्व के अनेक देशों में समान नागरिक संहिता लागू है। हिन्दू मैरिज अधिनियम में हिन्दू विवाहित युगल विवाह के 12 महीने के बाद आपसी सहमति से तलाक का आवेदन कर सकता है जबकि यदि पति किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो तथा स़्त्री से संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के तुरंत बाद भी तलाक का आवेदन किया जा सकता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में मात्र 3 बार तलाक बोलने से ही तलाक हो जाता है। निकाह के समय मेहर की तय रकम दे दी जाती है। तलाक के तुरंत बाद पुरुष निकाह कर सकता है जबकि महिला को 4 महीने 1० दिन इद्दत पीरियड तक इंतजार करना पड़ता है। ईसाई युगल विवाह के 2 साल के बाद तलाक की अर्जी दे सकता है। इससे पहले नहीं अर्थात भारत में हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई के अलग अलग पर्सनल लॉ तलाक की प्रक्रि या निर्धारित करते हैं।
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के विरोध पर कहा जाता है कि यूसीसी हिन्दू कानून को लागू करने जैसा है। मुसलमान चाहते हैं कि वे तलाक का मामला मजहबी व्यवस्था के अंतर्गत निपटाएं। कुछ धर्मों में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। यदि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू हो जाता है तो भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार सम्भव हो सकेगा। आखिरकार एक राष्ट्र, एक विधि और समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का स्वाभाविक सिद्धान्त लागू क्यों नहीं हो सकता है? यह राष्ट्रीय एकता का मूलाधार है। मजहबी लोग समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को अपने अपने निजी मजहबी कानूनों में हस्तक्षेप मानते हैं जबकि संविधान निमार्ता इस तथ्य से परिचित थे कि कोई कानून निजी नहीं होता।
सभी कानून राज और समाज पर समान रुप से लागू होते हैं पर मजहबी लोग निजी कानून को राष्ट्रीय विधि मानने को तैयार नहीं होते हैं। अंग्रेजों ने निजी कानूनों को मानने की अनुमति दी थी जबकि अंग्रेजों ने पूरे देश में एक ही अपराधिक कानून लागू किया था, क्या उसे लेकर मुसलमानों ने अंग्रेजों के सामने विरोध करते हुए मांग की थी कि उन्हें अपराधों पर दंड भी मजहबी कानून के अंतर्गत ही दिया जाये। संविधान निमार्ताओं की इच्छा का सम्मान करते हुए समान नागरिक संहिता विवाह, तलाक व उत्तराधिकार के मामलों में भी तैयार किया जाना चाहिए। सभी के लिए कानून एक समान होने से देश में एकता की भावना बढ़ेगी।
जिस देश में नागरिकों में अलगाववाद की बात नहीं होती, उस देश का विकास भी तेज गति से हो पाता है। कानून का कोई धर्म नहीं होता है फिर एक देश में अलग अलग धर्म के नागरिकों के लिए अलग अलग कानून क्यों? न्याय वही है जो धार्मिक संदर्भ में देखे बिना मानवीय आधार पर हो सके। संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता की बात कही गई परन्तु उसमें दर्ज है कि कुप्रथा तथा भेदभाव को धार्मिक आजादी नहीं माना जा सकता। अत: भारत के सभी नागरिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए संविधान का सम्मान व पालन करते हुए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का निर्माण किया जाना चाहिए।
-डा. सूर्य प्रकाश अग्रवाल