नेपाल हमेशा भारत को बिग ब्रदर मानता रहा है, लेकिन कोविड-19 के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की बोली जहरीली ही रही तो रीति और नीति भी एकदम जुदा। ओली अपने आका ड्रैगन के इशारे पर साम, दाम, दंड और भेद की नीति का अंधभक्त की मानिंद अनुसरण करते रहे। भारत को उकसाने, उस पर सांस्कृतिक हमले और सम्प्रभुता से छेड़छाड़ करने में नेपाल ने ओली के वक्त कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ऐसा करके भारत के संग-संग नेपाल की अवाम और विरोधी नेताओं के बार-बार निशाने पर ओली रहे थे। ओली की सरकार ने भारत के तीन अटूट हिस्सों -कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का बताया था।
संत कबीर दास जी ने कहा था, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए’ सरीखा कथन मौजूदा वक्त में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पर शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रहा है। स्वयं ओली और उनके समर्थक भले ही संसद भंग करने के सरीखे कदम को सियासी तौर पर मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं, लेकिन प्रचंड खेमे, विपक्षी दलों और नेपाल की अवाम की नजर में ओली का यह स्टेप अनएथिकल या कहें अनैतिक है। करीब-करीब ढाई साल की सत्ता में ओली ने न तो राजधर्म, न गठबंधन धर्म और न ही दोस्ती का धर्म निभाया है।
सत्ता के नशे में पीएम ओली ड्रैगन के हाथों की कठपुतली बने रहे। अंतत: ओली सरकार का हश्र रणछोड़ सियासी खिलाड़ी की मानिंद हुआ। अविश्वास और असंवैधानिक कदमों से समूचा नेपाल आहत है। ओली के इस अप्रत्याशित फैसले को विपक्षी दलों के साथ सत्तारुढ़ एनसीपी के नेताओं ने भी असंवैधानिक करार दिया है। एनसीपी ने ओली पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश केंद्रीय समिति से की है। प्रचंड समर्थक 7 मंत्रियों ने इस्तीफे भी दे दिए हैं। यह बात दीगर है, राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने फटाफट उनकी संसद भंग करने की संस्तुति मंजूर कर ली और चुनाव का भी ऐलान कर दिया है, लेकिन ओली के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई है।
उल्लेखनीय है, नेपाल में प्रतिनिधि सभा और राष्ट्रीय सभा दो सदन हैं। सरकार बनाने के प्रतिनिधि सभा में बहुमत जरुरी होता है। प्रतिनिधि सभा के 275 ने से 170 सदस्य सत्तारुढ़ एनसीपी- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पास हैं। नेपाल में 2015 में नया संविधान बना था। 2017 में अस्तित्व में आई संसद का कार्यकाल 2022 तक का था। 2018 में ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएल और पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली सीपीएन (माओवादी केंद्रित) का विलय होकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-एनसीपी का गठन हुआ था। विलय के समय तय हुआ था, ढाई वर्ष ओली पीएम रहेंगे तो ढाई वर्ष प्रचंड पीएम रहेंगे। प्रचंड चाहते थे, एक पद-एक व्यक्ति के सिद्धांत पर एनपीसी को चलाया जाए, इसीलिए प्रचंड ओली पर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव डालते रहे, लेकिन ओली टस से मस नहीं हुए।
इसके उलट जब प्रचंड को पीएम का पद सौंपने का वक्त आया तो उन्होंने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी। नेपाल अब मध्यावधि आम चुनाव का सामना करेगा। हालाँकि राष्ट्रपति कार्यालय ने पीएम ओली की सिफारिश को संविधान के अनुकूल बताया है, लेकिन एनसीपी के प्रवक्ता नारायणकाजी श्रेष्ठ ने कहा, यह निर्णय जल्दबाजी में लिया गया है। बैठक में सभी मंत्री भी मौजूद नहीं थे। यह पूरी तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। देश को पीछे ले जाएगा। यह लागू नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री ओली के संसद भंग की सिफारिश करने के बाद विपक्ष भी एक्टिव हो गया है। मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस ने आपातकालीन बैठक बुलाई है। प्रचंड खेमे से लेकर माधव नेपाल, झालानाथ खनल के साथ-साथ विपक्षी दल नेशनल कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता पार्टी ने एक दिन पहले ही राष्ट्रपति से संसद का विशेष सत्र बुलाने का आग्रह किया था।
हालाँकि उम्मीद की जा रही थी, ओली इस बैठक में अध्यादेश को बदलने की सिफारिश करेंगे। उल्लेखनीय है, प्रधानमंत्री ओली पर संवैधानिक परिषद् एक्ट के एक अधिनियम को वापस लेने का दबाव था। इस अधिनियम को सरकार 15 दिसंबर को लेकर आई थी। उसी दिन अधिनियम को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया था। तेजी से बदले सियासी घटनाक्रम के बाद अब नेपाल में सियासी संग्राम छिड़ने के आसार हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच करीब एक बरस से शक्ति प्रदर्शन चल रहा है। उल्लेखनीय है, 44 सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी में ओली अल्पमत में थे। प्रचंड के पास 17, ओली के पास 14 और नेपाल के साथ 13 सदस्य हैं।
इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है, नेपाल की राजनीति में बड़ा संकट खड़ा हो गया है। नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने प्रधानमंत्री ओली की सिफारिश पर संसद को भंग कर दिया है। अप्रैल-मई में मध्यावधि आम चुनाव की घोषणा कर दी है। पार्टी के अंदर ही विरोध झेल रहे नेपाल के प्रधानमंत्री ने अप्रत्याशित कदम उठाते हुए संसद को भंग करने की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति ने यह फैसला लिया। आमतौर पर ऐसे बड़े निर्णय पर प्रधानमंत्री पहले से ही राष्ट्रपति से विचार-विमर्श कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में माना जा रहा है कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सिफारिश को मंजूरी दे सकती हैं। हुआ भी यही। मंत्रिपरिषद् की सिफारिश पर नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने घोषणा की कि अगले साल 30 अप्रैल से 10 मई के बीच राष्ट्रीय चुनाव होंगे।
नेपाल हमेशा भारत को बिग ब्रदर मानता रहा है, लेकिन कोविड-19 के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की बोली जहरीली ही रही तो रीति और नीति भी एकदम जुदा। ओली अपने आका ड्रैगन के इशारे पर साम, दाम, दंड और भेद की नीति का अंधभक्त की मानिंद अनुसरण करते रहे। भारत को उकसाने, उस पर सांस्कृतिक हमले और सम्प्रभुता से छेड़छाड़ करने में नेपाल ने ओली के वक्त कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ऐसा करके भारत के संग-संग नेपाल की अवाम और विरोधी नेताओं के बार-बार निशाने पर ओली रहे थे। ओली की सरकार ने भारत के तीन अटूट हिस्सों -कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का बताया था। यह ही नहीं, भारत के प्रबल विरोध के बावजूद नेपाल की संसद में इस विवादित नक़्शे में संशोधन का प्रस्ताव भी पारित कर दिया था। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया नेपाल के इस बगावती रुख के पीछे चीन की हिमाकत को मानती रही है।
ओली ने यह भी दावा किया था, भगवान राम नेपाल में जन्मे थे, इसीलिए भगवान राम भारतीय नहीं बल्कि नेपाली हैं। वह यह कहना भी नहीं चूके थे, असली अयोध्या भारत में नहीं, नेपाल में है। ओली ने सारी सीमाएं लांघते हुए कहा था, इंडियन वायरस चाइनीज और इटली से ज्यादा जानलेवा है। इन सबकी आड़ में ओली सरकार के मंसूबे बेहद खतरनाक रहे हैं। नेपाल अपने आका के इशारे पर बहादुर गोरखों को भारत से बहुत दूर करने की फिराक में था और है। बावजूद इसके भारत अपने फर्ज से नहीं डिगा और न डिगेगा। वह हमेशा परिपक्वता का परिचय देते हुए बड़े भाई की भूमिका निभा रहा है। ओली अब नाराज भारत को रिझाने और मनाने लगे थे। भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे को नेपाल सेना के जनरल पद की मानद रैंक से सम्मानित करके उन्होंने दोनों देशों के बीच जमी बर्फ को पिघालने का काम किया, लेकिन वह नेपाल की आंतरिक सियासी जंग में हार गए।
नेपाल के संविधान विशेषज्ञ भीमार्जुन आचार्य इसे नेपाल के नए संविधान के साथ धोखा बताते हैं। कहते हैं, सिर्फ सरकार के अल्पमत या त्रिशंकु होने पर ही इसे भंग किया जा सकता है, लेकिन अभी ऐसे हालात नहीं हैं। दूसरी ओर नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने राष्ट्र के नाम संबोधन में अपने पार्टी के ही विरोधी नेता प्रचंड पर परोक्ष रूप से हमला बोलते हुए कहा, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में दरार बड़ी हो गई थी। सरकार चलाना मुश्किल हो रहा था। ऐसी स्थिति में जनता का दोबारा विश्वास हासिल करना ही एक मात्र विकल्प था।
एनसीपी के असंतुष्ट प्रचंड गुट ने 20 दिसंबर की सुबह पीएम ओली के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पत्र का नोटिस दे दिया था। उन्होंने राष्ट्रपति से विशेष सत्र बुलाने का आग्रह भी किया था। माना जा रहा है, ओली खेमे को इसकी भनक लग गई थी। साथ ही साथ ओली अपने खिलाफ राजशाही वापसी को लेकर देश में हो रहे धरने और प्रदर्शन से भी खासे तनाव में थे। नतीजन प्रधानमंत्री ओली ने आनन-फानन में संसद भंग करने की सिफारिश कर दी। बताते हैं, इस अविश्वास प्रस्ताव को प्रचंड खेमे के मंत्रियों और 50 सांसदों का समर्थन प्राप्त था।
-श्याम सुंदर भाटिया
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