अजी सुनती हो’ सुलभ ने शैलजा के लिए आवाज लगाई थी। ‘अभी आयीं।’ बोलिए, शैलजा कमरे में पहुँचते ही कहा था। ‘अरे भाई, कुछ पल तो अजीत के साथ भी बीता लो, बेचारा विदेश से आया है। जल्द ही लौट जाएगा, इतना समय कहां है। कोई घर आया है तो तुम्हें फुर्सत ही नहीं मिलती। बैठो और चाय तुम भी पियो।’ सुलभ ने कहा था। ‘ऐसी कोई बात नहीं, हमने सोचा थोड़ा अजीत के लिए नाश्ता बना दें, अभी काव्या भी शहर से कोचिंग कर लौटती होगी।’ शैलजा ने अपनी बात पूरी की। सभी लोग चाय की चुस्कियों और पकौड़े में तल्लीन हो गए। टिक-टिक करती घड़ी ने जाने कब शाम के सात बजा दिये थे पता ही नहीं चला था। शैलजा भाभी के दिल में अब कुछ हलचल सी होने लगी थी। उनका मन अब बातों में नहीं लग रहा था। वह बार-बार टिक-टिक करती घड़ी को देख रहीं थीं।
अजीत उनके चेहरे की रंगत बदलते देख समझ गया था कि भाभी को कोई दिक्कत है। ‘भाभी , आप कुछ परेशान सी दिखती हैं, क्या बात है। मौसम तो ठंडा है फिर भी आपके चेहरे पर पसीने की बूँदें।’ ‘नहीं, अजीत। ऐसी कोई बात नहीं है सब कुछ समान्य है।’ लेकिन शैलजा भाभी से रहा नहीं जा रहा था। उन्होंने दिवाल घड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहा था ‘काव्या अभी नहीं आयीं।’ बेहद हलके हल्के अंदाज में कहीं गई उनकी बात में कई सवाल थे। सुलभ अब गम्भीर हो गया था। ‘अरे, हां। तुम ठीक कहती हो बातों- बातों में इतना समय हो गया पता ही नहीं चला। पता चलता भी कैसे मेरा दोस्त जो आया है। एक बनावटी हंसी ओढ़े सुलभ ने सबकुछ जैसे सामान्य होने की तरफ इशारा किया था।
वह मुझे यह बताने कि कोशिश कर रहा था। लेकिन बेटी की घर वापसी को लेकर सुलभ भी परेशान हो उठा था। उसके चेहरे को मैं अच्छी तरह पढ़ रहा था। ‘कहां रह गई वह, अभी तक कोचिंग से नहीं आई। वैसे तो शाम छह बजे तक लौट आती थीं। अधिक विलम्ब हो रहा है। आज के जमाने में भी अजीब लड़की है मोबाइल भी नहीं ले जाती।’ ‘आज रितिका और सगुन भी कोचिंग नहीं गई हैं, अकेली गई है।’ भाभी की बात को सुन सुलभ परेशान हो उठा। ‘फिर तुमने उसे अकेली जाने क्यों दिया।’ बारिश का मौसम अपना मिजाज बदल रहा था। हवाएं तेज हो गई थीं। आसमान में काले- घने बादलों के गुच्छ छाए थे। बादलों के गड़गड़ाहट बीच कौंधती बिजली शैलजा भाभी को डरा रहीं थीं। जितना अधिक समय बीत रहा था बेटी काव्या को लेकर उनकी मुश्किलें और फिक्र भी बढ़ रहीं थीं।
काव्या, भाभी की अकेली संतान थीं। वीएससी फाइनल की छात्रा थीं। एक बेटी आने के बाद सुलभ और शैलजा नियोजन अपना लिया था। मैंने लाख समझाया था कि एक बेटा तो होने दो, लेकिन भाभी ने कहा था अजीत, अब जमाना बदल गया है बेटा- बेटी में कोई फर्क नहीं, फिर क्या बेटियां किसी से कम होती हैं। आजकल का जमाना दूसरा है। बहुएं आते ही नखरे दिखती हैं। बेटे अपने साथ शहर लेकर चले जाते हैं। दु:ख-तकलीफ तो माँ-बाप को ही उठानी पड़ती है। सारी जिमेदारी और टहल बेटियां उठाती हैं।
शैलजा भाभी बार-बार शहर से गाँव आती उस सड़क को निहार रहीं थीं। अब बारिश होने लगी थीं। हवाएं और तेज हो चली थीं। बादलों में कौंधती बिजली भाभी के सीने को चीर रहीं थीं। उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। काव्या के साथ शहर से लौटते समय कोई अनहोनी न हो, वह इसी बात को लेकर आशंकित थीं। क्योंकि शहर से गाँव आने वाली सड़क निर्जन और सुनसान थीं। ‘भाभी शांत हो जाओ। काव्या कोई दूध पीती बच्ची नहीं है। वह अपना बुरा-भला समझती है। कोई दिक्कत हो गई होगी। जिसकी वजह से कोचिंग से लौटने में उसे देर हो रहीं है।’ ‘अजीत, लौटने का सवाल नहीं है। मेरी काव्या बहोत गम्भीर और सुशील है। लेकिन अभी चार दिन पूर्व ही इसी कोचिंग की एक लड़की का कुछ मनचलों ने अपहरण कर लिया था। जंगलों में पहाड़ी के पास उसकी लाश मिली थीं। उस घटना को अखबार में पढ़ मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे।’
हमने फैसला किया था कि हम दोनों अपनी फोर व्हीलर से काव्या की खोज में शहर की तरफ निकलते हैं। सुलभ भी उठ खड़ा हुआ। तभी आसमान में बादलों की गड़गडाहट के बीच बिजली कौंधी। दरवाजे पर साइकिल की घंटी ट्रिन-ट्रिन बोली। भाभी बगैर सोचे दौड़ पड़ी और तेज आवज में काव्या-काव्या बोलती हुई बेटी को गले लगा कर फफक पड़ी। ‘मां! यह क्या, तूं क्यों रो रहीं है। आज साइकल की चेन काफी परेशान कर दिया।
बार- बार उतर रहीं थीं फिर टूट गई, जिसकी वजह से देर हो गई। तूं भी न। इतना चिंता क्यों करती है। मैं कोई बच्ची थोड़ी हूँ, अब तेरी काव्या बड़ी हो गई है। सब कुछ जानती है। तूं ऊंच-नीच का खयाल दिमाग से निकाल दे। हां, तुझे नहीं बताया जिम जाकर कराटे भी सीख लिए हैं। दस को तो मैं अकेले निपटा दूँगी। मैं अच्छी तरह जानती हूँ तुम उस दिन की घटना अखबार में पढ़कर कुछ ज्यादा ही सोचने लगी हो।’ बेटी के घर पहुँचते ही शैलजा भाभी की सारी फिकर दूर हो गई थीं। थोड़ी देर बाद महौल में शांति आ गई थीं। सुलभ के चेहरे पर भी सुकुन दिखने लगा था। बारिश अब हल्की पड़ने लगी थीं। अंधेरा और गहराने लगा था।
तभी सन्नाटे को भंग करते हुए मेरी आवज गूंजी थी ‘भाभी हम चलते हैं।’ ‘अरे! चाचू आप कब आए।’ काव्या ने मेरे पैर छुए और गले से लिपट गई। अभी तो हमने आप से कोई बात ही नहीं किया। मैं माँ को अच्छी तरह जानती हूं माँ ने आप और पापाजी को चैन से बैठने ही नहीं दिया होगा। आप आँटी को अभी फोन लगाइए मैं बोलती हूँ कि चाचाजी रात का खाना खाकर जाएंगे।’ कमरे की सारी नीरवता तोड़ते हुए एक जोर का ठहाका गूँजा था। तभी अंदर से शौलजा भाभी मुस्कुराते हुए आई थीं और कहा था हां, काव्या ठीक कहती है।
–प्रभुनाथ शुक्ल
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