वो जलाकर बस्ती आशियानें की बात करते हैं,
मिटाकर हाथों की लकीरें मुक्कदर की बात करते हैं।
नादान थे हम चालाकियाँ समझ ही ना पाए,
अपना बनाकर हमें वो गैरों की बात करते हैं।
छुपाते रहें उम्र भर जिनकी गलतियों को हम,
वो महफ़िल में मेरी कमियों की बात करते हैं।
गर इतने ही खफा रहते हो ‘साज’ हमसे,
तो बात बात पर क्यूं हमसे वो बात करते हैं।
जलाते रहें जिन्दगी भर अरमानों को मेरे,
अब हमसे वो मर जाने की बात करते हैं।
क्यूं समझ ना सके जज्बातों को वो मेरे,
रुलाकर दिल को मेरे अब हंसी की बाते करते हैं।
बेवफाई हमसे की दगा हमीं को दिया,
जमाने भर से अपनी वफ़ा की बाते करते हैं।
जब हो चुके जमाने से ही रुखसत हम,
तब हमारी कमी की बातें करते हैं।
रश्मि चिकारा, गुरुग्राम