पेड़ के नीचे पढ़ाई करने वाले एक छोटे से गांव के लड़के से नोबेल विजेता बनने तक हरगोविंद खुराना का सफर संघर्ष और जिजीविषा की दास्तान है। उनका नाम उन चुनिंदा वैज्ञानिकों में शामिल है जिन्होंने बायोटेक्नॉलॉजी की बुनियाद रखने में अहम भूमिका निभाई थी। हरगोविंद खुराना का जन्म नौ जनवरी, 1922 को रायपुर नाम के गांव में हुआ था जो अब पाकिस्तान के मुल्तान जिले का हिस्सा है। एक बहन और चार भाइयों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। 1943 में उन्होंने लाहौर की पंजाब यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया और 1945 में यहीं से पोस्टग्रेजुएशन। 1948 में उन्होंने पीएचडी पूरी की। इसके बाद उन्हें भारत सरकार ने स्कॉलरशिप दी और वे आगे की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन स्थित लिवरपूल यूनिवर्सिटी चले गए। 1952 में नौकरी की एक पेशकश उन्हें कनाडा की यूनिवर्सिटी आॅफ ब्रिटिश कोलंबिया ले गई।
यहीं हरगोविंद खुराना ने जीव विज्ञान में वह काम शुरू किया जिसके लिए बाद में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। यहां वे 1959 तक रहे औऱ बताया जाता है कि उन्हें अपना काम करने के लिए पूरी आजादी मिली। 1960 में हरगोविंद खुराना अमेरिका आ गए। यहां वे विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी के साथ जुड़े। 1966 में उन्हें अमेरिकी नागरिकता मिल गई। इसके दो ही साल बाद रॉबर्ट डब्ल्यू हॉली और मार्शल डब्ल्यू नीरेनबर्ग के साथ उन्हें संयुक्त रूप से चिकित्सा का नोबेल दिया गया। यह पुरस्कार उन्हें जेनेटिक कोड और प्रोटीन संश्लेषण में इसकी भूमिका की व्याख्या के लिए दिया गया। डॉ. हरगोविंद खुराना की एक और अहम खोज थी पहले कृत्रिम जीन का निर्माण। यह उपलब्धि उन्होंने 1972 में हासिल की।
चार साल बाद ही उन्होंने ऐलान किया कि उन्होंने इस कृत्रिम जीन को एक कोशिका के भीतर रखने में कामयाबी हासिल की है। इस तरह देखें तो हरगोविंद खुराना की बायोटेक्नॉलॉजी की बुनियाद रखने में भी अहम भूमिका रही। नोबेल पुरस्कार के बाद अमेरिका ने उन्हें नेशनल एकेडमी आॅफ साइंस की सदस्यता प्रदान की। यह सम्मान केवल विशिष्ट अमेरिकी वैज्ञानिकों को ही दिया जाता है। डॉ खुराना ने अमेरिका में अध्ययन, अध्यापन और शोध कार्य जारी रखा। देश-विदेश के तमान छात्रों ने उनके सानिध्य में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। नौ नवंबर 2011 को इस महान वैज्ञानिक ने अमेरिका के मैसाचूसेट्स में आखिरी सांस ली।
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