तिलक के ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ से लेकर आज ‘हड़ताल मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ तक भारत ने एक लंबी यात्रा तय की है। आज समाज का हर वर्ग हड़ताल करने की योजना बना रहा है चाहे राजनीतिक विरोध प्रदर्शन हो, चाहे श्रमिकों की हड़ताल हो या चक्का जाम जिससे आम जीवन ठप्प हो जाता है, जिसमें हिंसा, अव्यवस्था आदि हों, ऐसे सारे विरोध प्रदर्शनों की योजनाएं बनाई जा रही हैं। जहां पर व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे की नाक की छोर पर खत्म होती है।
पिछले सप्ताह भारत में विरोध प्रदर्शन का नया और पुराना व्याकरण देखने को मिला। पहले में विपक्ष के आठ सांसदों ने संसद भवन में गांधी की मूर्ति के सामने विरोध प्रदर्शन किया और इसका कारण राज्य सभा में कृषि विधेयकों पर वाद-विवाद के दौरान उनके द्वारा किए गए शोर-शराबे और उपद्रव के चलते उन्हें निलंबित किया जाना था। दूसरे में 18 विपक्षी दलों और 31 किसान संगठनों ने संसद द्वारा पारित कृषि विधेयकों का विरोध करने के लिए भारत बंद का आयोजन किया।
इन विधेयकों में किसानों को दूसरे राज्य में और राज्य के भीतर कहीं भी मंड़ी से बाहर राज्य सरकार को शुल्क दिए बिना अपने उत्पाद बेचने की अनुमति दी गयी हैं किसानों को आशंका है कि उन्हें अब न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा। कमीशन एजेंटों को आशंका है कि उनका कमीशन मारा जाएगा और राज्यों को आशंका है कि उनका कर मारा जाएगा। विपक्ष को मोदी सरकार को घरेने के लिए यह एक अच्छा मुद्दा मिला। इससे विपक्ष किसानों के गुस्से का उपयोग भी कर सकते हैं और आगामी बिहार विधान सभा तथा अन्य चुनावों में वोट प्राप्त करने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं और इसके चलते राष्ट्रीय राजमार्गों को बाधित किया गया।
तीन दिन चले रेल रोको अभियान में अनेक रेलगाड़ियों की सेवा निलंबित करनी पड़ी। एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री के अनुसार यह अंगूर खट्टे हैं का मामला है। यह मोदी युग में सब कुछ खो चुके विपक्ष के लिए अपने पैर फिर से जमाने का एक बहाना है। वे समझते हैं कि केवल नारेबाजी से वे प्रासंगिक बने रह सकते हैं। इसका प्रत्युत्तर विपक्ष ने यह कहकर दिया सरकार ने किसानों की आवाज को अनसुना किया है और विरोध का दमन करने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जा रहा है।
मुद्दा यह नहीं है कि क्या किसानों की शिकायतें उचित हैं। न ही यह उनके शोषण या उनकी शिकायतों के निराकरण का मुद्दा है। उनकी वास्तविक शिकायतें हो सकती हैं किंतु सरकार को अपनी बात मनवाने का यह तरीका नहीं है। किंतु केवल किसानों को ही क्यों दोष दें? हमारे राजनीतिक दल भी इसी तरह दोषी हैं। वे अपने स्वार्थों और ब्लैकमेल करने के लिए हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों का उपयोग करते हैं। वस्तुत: आज देश में कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जब कहीं न कहीं विरोध प्रदर्शन या हड़ताल न हो। चाहे कोई मोहल्ला हो, जिला हो राज्य हो सब जगह यही स्थिति देखने को मिलती है और ऐसा लगता है कि भारत विरोध प्रदर्शनों के कारण आगे बढ रहा है। कारण महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण अपना विरोध दर्ज करना है और यह विरोध जितने ऊंचे स्वर मे हो उतना अच्छा है। जितना सामान्य जनजवन ठप्प किया जा सके उतना अच्छा है। विरोध प्रदर्शन और हड़ताल की सफलता का आकलन लोगों को पहुंची असुविधा के आधार पर किया जाता है।
प्रश्न उठता है कि राजनीतिक दलों और श्रमिक संघों को हड़ताल करने के लिए क्या प्रेरित करता है? क्या इसका कारण उचित होता है, क्या राज्य अनुचित और अन्यायकर्ता हैं? क्या यह विपक्ष और श्रमिक संगठनों के सदस्यों को एकजुट करने का प्रयास होता हैं ? या क्या यह राजनीतिक कारणों से किया जाता है ? क्या यह बेहतर मजदूरी और जीवन की गुणवत्ता के लिए किया जाता है? क्या ब्लैकमेल और भीड़तंत्र द्वारा हिंसा के माध्यम से लोकतंत्र का अपहरण करने का प्रयास है।
विरोध प्रदर्शन एक रोचक शब्द है। यह लोकतंत्र को जीवंत रखने और वाक् स्वतंत्रता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसलिए इसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है चाहे यह कहना ही नुकसानदायक क्यों न हो। यह विपक्ष और श्रमिक संघों का एक औजार बन गया है और जब कभी वे अपनी सत्ता के लिए अपनी हताशा में कार्य निष्पादन पर पर्दा ड़ालने या सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अपना गुणगान करने का उनका मन करता है वे हड़ताल या विरोध प्रदर्शन करने लग जाते हैं। इस खेल के कुछ पुराने खिलाड़ियों ने स्वीकार किया है कि यह अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए है। ऐसे वातावरण में जहां पर अपना हिस्सा वसूलने के लिए शक्ति का प्रयोग हमारी दूसरी प्रवृति बन गयी हो वहां पर किसे दोष दें।
राजनीतिक दल और श्रमिक संघ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। केवल यह प्रश्न महत्वपर्ण है कि हड़ताल और बंद कौन करवाता है और किसको इससे लाभ होता है। हड़ताल और बंद के विरोधाभास को हड़ताल और बंद की बदलती धारणा स्पष्ट कर देती है। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार चार में से तीन लोग हड़ताल पर कानूनी प्रतिबंध लगाना चाहते हैं। 10 में से 8 लोग चाहते हैं कि हड़ताल के नेताओं पर कठोर दंड और भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए। केवल 15 प्रतिशत लोग हड़ताल में विश्वास करते हैं।
वस्तुत: 2009 से 2014 के बीच में हड़ताल और विरोध प्रदर्शन में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई। देश में प्रतिदिन लगभग 200 विरोध प्रदर्शन होते हैं और इसमें शिक्षित राज्य आगे हैं। इन पांच वर्षों में 420000 विरोध प्रदर्शन हुए। सबसे अधिक छात्र विरोध प्रदर्शन हुए। इसमें 148 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उसके बाद सांप्रदायिक विरोध प्रदर्शनों में 92 प्रतिशत, सरकारी कर्मचारियों के विरोध प्रदर्शनों में 71 प्रतिशत, राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों में 42 प्रतिशत, श्रमिकों के विरोध प्रदर्शनों में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पार्टी और उनके संगठन के विरोध प्रदर्शन 32 प्रतिशत से बढकर 50 प्रतिशत तक बढ गए।
पार्टी और उनके संगठनों के विरोध प्रदर्शनों में यदि उनके छात्र संगठनों और श्रमिक संगठनें को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। श्रमिक श्रम सुधारों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए आयोजित भारत बंद से करदाताओं को 18 हजार करोड़ रूपए का नुक्सान हुआ तो जाट आंदोलन से 34 हजार करोड़ रूपए का और कावेरी नदी जल विवाद को लेकर कर्नाटक में विरोध प्रदर्शनों से 22 हजार से 25 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ। जब भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ रहा है तो क्या ये विरोध प्रदर्शन उचित हैं? यह सही है कि संविधान में सभी लोगों को विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार, वाक् स्वतत्रंता और सभा करने की स्वतंत्रता उनके मूल अधिकार के रूप में दिया है किंतु संविधान ने अन्य लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण करने और आम जनता को असुविधा पैदा करने का अधिकार नहीं दिया है।
सभा करने के अधिकार का प्रयोग इस तरह से किया जाना चाहिए कि यह किसी व्यक्ति या आम जनता या लोक व्यवथा के कानूनी अधिकारों, हितों और सुविधाओं के विरुद्ध न हो। हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं है और न ही यह अव्यवस्था पैदा करने का अधिकार है। यह अधिकारों और कर्तव्यों, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच एक संतुलन है। एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की जिम्मेदारी हो सकती है। ध्यान आकर्षित करने और नीतियों को बदलने के लिए राज्य व्यवस्था को पंगु करने से जनता को असुविधा होती है। हिंसा के प्रयोग का कोई परिणाम नहंी हो सकता है क्योंकि एक सशक्त समाज के निर्माण में यह सहायक नहीं होता है।
फिर इसका समाधान क्या है? ‘सब चलता है’ दृष्टिकोण कब तक चलेगा? आज हर कोई अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए कहता है ‘की फरक पैंदा है’। पिछले सप्ताह के बंद ने दर्शा दिया है कि यह खेल कितना खतरनाक हो गया है क्योंकि अब इस खेल को केवल अनुशासनहीनता का खेल नहीं कहा जा सकता है। यह व्यवस्था की विफलता का खेल बन गया है। नागरिकों के अधिकार सर्वोच्च है। समय आ गया है कि पाखंड़ी पार्टियों के विरुद्ध बंद का आयोजन किया जाए और राजनीतिक हड़तालों पर रोक लगायी जाए। बंद करो ये नाटक।
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