सतगरू हमेशा ही अपने शिष्य के पास रहता है
जिस तरह कूंज अपने बच्चों को छोड़कर आसमान में उड़कर दूर चली जाती है, परंतु अपना ध्यान अपने बच्चों में ही रखती है व अपने अंतर ह्रदय के साथ उनकी संभाल करती है, या जिस तरह कछुआ अपने अंडे खुश्की में देकर खुद पानी में रहता है, परंतु अपने अंडों का ध्यान अपनी अंतर तव्वजो के साथ रखते हुए पकाता रहता है व जिस तरह बछड़े वाली गाय बाहर चारा खाने चली जाती है परंतु अपना ध्यान पीछे अपने बच्चे में रखती है। इसी तरह सतगुरू अपने शिष्य को अपनी नजर में रखकर उसकी पालना करता है व उसे अपने अंतर ह्रदय के साथ संभालता रहता है।
जिसकी चीज थी उसी के पास चली गई
पूजनीय मस्ताना जी ने इस डेरे में अक्तूबर सन् 1957 में सत्संग मंजूर कर दिया। उस समय तक डेरा मुकम्मल हो चुका था। बेपरवाह जी ने डेरे का नाम ‘मौजपुर धाम’ रख दिया। उस सत्संग पर बहुत बड़ी संख्या में साध-संगत आई। पूजनीय शहनशाह जी ने सत्संग में कोट, कंबल, गर्म कपड़े व जर्सियां आदि बहुत सामान सेवादारों में बांटा। उस समय पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज(गुरूगद्दी से पहले)भी सत्संग में आए हुए थे। एक कविराज की ओर से भजन बोलने पर शहनशाह मस्ताना जी ने उसे अपना कोट उतार कर बख्श दिया था। परंतु वह कविराज खुश न हुआ।
बाद में उसने साध-संगत में कह दिया, ‘‘बाबा जी ने मैनूू रूपये तो दिए नहीं।’’ उसने कोट की बिल्कुल भी कद्र नहीं की। पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने कविराज की सारी बातें सुन ली। पूजनीय परम पिता जी ने किसी श्रद्धालु द्वारा यह कोट 13 रूपये में खरीद लिया व कहा, ‘‘अगर 100 रूपये भी मांगता तो भी हम दे देते, यह अनमोल है।’’ जब इस बात का पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज को पता चला तो वह बहुत खुश हुए व फरमाया,‘‘जिस की चीज थी उसके पास चली गई।’’
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