स्वतंत्रता सेनानी ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जन्म आज ही के दिन 26 सितंबर, 1820 को मेदिनीपुर में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुरदास बंद्योपाध्याय एवं माता का नाम भगवती देवी था। वे एक दार्शनिक, अकादमिक शिक्षक, लेखक, अनुवादक, समाज सुधारक और परोपकारी थे। संस्कृत भाषा और दर्शन में अगाध ज्ञान होने के कारण विद्यार्थी जीवन में ही संस्कृत कॉलेज ने उन्हें विद्यासागर’ की उपाधि प्रदान की थी। इसके बाद से उनका नाम ईश्वर चंद्र विद्यासागर हो गया था।
उन दिनों वे कोलकाता के एक समीपवर्ती कस्बे में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे। वातावरण में भयानक ठंड बढ़ गई। एक दिन शाम से ही बूंदाबांदी हो रही थी। ईश्वरचंद्र अपने स्वाध्याय में व्यस्त थे, तभी किसी ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी। उन्होंने एक अजनबी को दरवाजे पर खड़ा देखा। अपनेपन से उस अजनबी को घर के भीतर बुलाया। उसे अपने नए कपड़े देकर भीगे वस्त्र बदलने को कहा। वह अतिथि उनके इस प्रेम भरे व्यवहार को देखकर भर्राए गले से बोला- ‘मैं इस कस्बे में नया हूं, यहां मैं अपने एक मित्र से मिलने के लिए आया था। जब मैं उसके घर के बाहर पहुंचा तो पूछने पर पता चला कि वह इस कस्बे से बाहर गया हुआ है।
ये सुनकर निरुपाय होकर मैंने कई लोगों से रात्रिभर के लिए शरण मांगी। लेकिन सभी ने मुझे संदेह की दृष्टि से देखकर दुत्कार दिया। आप पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने …।ईश्वरचंद्र ने कहा- अरे भाई, तुम तो मेरे अतिथि हो। हमारे शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अतिथि देवो भव। मैंने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है। कहकर उन्होंने अतिथि के सोने के लिए बिस्तर व भोजन की व्यवस्था की। फिर अपने हाथ से अंगीठी जलाकर उसके कमरे में रख दी। सुबह जब वह अतिथि पंडित ईश्वरचंद्र से विदा लेने गया तो वे हंसकर बोले – कहिए अतिथि देवता! रात को ठीक ढंग से नींद तो आई? अतिथि उनके सद्व्यवहार को मन ही मन नमन करते हुए बोला- असली देवता तो आप हैं, जिसने मुझे विपदग्रस्त देखकर मदद की। पूरी जिंदगी उस व्यक्ति के मन में विद्यासागर की करुणामय दवि बसी रही। ऐसी महान विभूति ईश्वरचंद्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ था।
अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।