प्रशांत भूषण मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने एक बार फिर से नई बहस को जन्म दिया है। इस मामले ने न्यायालय की अवमानना कानून में संशोधन के महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाया है। इस कानून के पक्ष और विपक्ष में मजबूत तर्क दिए गए हैं। यदि कोई कानून बनाया जाता है तो न्यायालयों और न्यायधीशों को मामले के गुण-दोषों के आधार पर उस कानून को लागू करना होता है और यह पूर्णत: न्यायधीशों के अधिकार क्षेत्र में है। आम जनता इस बारे में केवल बहस कर सकती है कि क्या ऐसा कानून आज प्रासंगिक हैै। क्या ऐसा कानून आवश्यक है तथा उसकी समीक्षा तथा उसमे संशोधन के बारे में सुझाव दे सकती है। भूषण मामले ने इस बहस को फिर से छेड दिया है। न्यायालय की अवमानना एक ऐसा अपराध है जिसमें न्यायालय और इसके अधिकारियों के प्रति व्यवहार से अवज्ञा की जाती है जिसमें प्राधिकारियों, न्याय और न्यायालय की गरिमा का विरोध या उल्लंघन किया जाता है। विधायी निकायों के विरुद्ध ऐसे व्यवहार को संसद या विधान मंडलों की अवमानना कहा जाता है।
अवमानना कानून का मूल न्यायालय की सर्वोच्चता और स्वतंत्रता में निहत है और इसकी शुरूआत प्राचीन राज्यों तथा अर्थशास्त्र जैसे प्राचीन गं्रथों में मिलती है किंतु इसके वर्तमान स्वरूप में आम धारणा यह है कि इसके अंतर्गत न्याय, न्यायधीश और न्यायिक संस्थाओं की अवमानना की जाती है। इस कानून का उद्देश्य न्यायालय की गरिमा बचाना और जनता की नजरों मे न्यायालय की गरिमा और आदर्श को बनाए रखना है। इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया, न्यायपालिका के प्राधिकार तथा न्यायालय की प्रतिष्ठा बनाए रखना भी है।
न्यायालय कानून का शासन बनाए रखने के अंतिम प्राधिकारी हैं। इसलिए इस संस्था तथा उससे जुडेÞ अधिकारियों को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। अवमानना में न्यायधीशों के विरुद्ध टिप्पणियां और आरोप भी शामिल हैं। न्यायिक प्रणाली के लिए न्यायधीशों में जनता का विश्वास बहुत महतवपूर्ण है। अमरीका में न्यायमूर्ति मार्शले ने अपनी इस टिप्पणी में विस्तार से कहा है कि न्यायपालिका की शक्ति न तो मामलों का निर्णय करने में है, न ही दंड देने में, न ही सजा सुनाने में अपितु आम जनता के विश्वास और आस्था में है। अवमानना के मामलों में इस आस्था और विश्वास को ही निशाना बनाया जाता है। आम जनता को कानून और न्याय का ज्ञान न हो किंतु वे व्यक्तिगत तथा अपमानजनक टिप्पणियों, घृणास्पद भाषणों, भ्रष्टाचार के आरोपों और अन्य आरोपों से भ्रमित होते हैं।
आज जन संचार तक लागों की पहुंच बढ जाने के कारण यह क्षण भर में लाखों लोगों तक पहुंच जाता है और मानव प्रवृति के अनुसार वह आक्रामक टिप्पणियों में प्रशंसा से अधिक आनंद लेता है। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ सीमा लगाना आवश्यक है ताकि मुद्दे, प्रक्रिया और निर्णय न कि अस्पष्ट आरोप, विख्यात व्यक्तियों, और संस्थाओं के विरुद्ध प्रचालित किए जएं। न्यायालय की अवमानना आपराधिक मानहानि से भिन्न है। आपराधिक मानहानि का मुकदमा पीडित व्यक्ति आरोपी के विरुद्ध दर्ज करा सकता है तथा न्यायालय की अवमानना उच्चतम नयायालय या किसी उच्च न्यायालय द्वारा स्वत: शुरू किया जा सकता है या एडवोकेट जनरल या विधि अधिकारी या उच्च न्यायालय को किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा भेजे गए मामले के आधार पर उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय द्वारा स्वत: शुरू किया जा सकता है।
अवमानना कानून की उत्पत्ति स्वयं संविधान से हुई है। भारत में न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 है जिसमें तीन प्रकार की अवमाननओं को मान्यता दी गयी है। सिविल अवमानना, न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री निर्देश या आदेश की अवज्ञा है। आपराधिक अवमानना किसी न्यायलय को बदनाम करने या उसके अधिकारों को कम करने के लिए किसी सामग्री को प्रकाशित करना या न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना या किस अन्य तरह से न्याय के प्रशासन में बाधा डालना है। यदि किसी प्रकाशन में न्यायालय को बदनाम किया जाता है या न्यायिक प्रकिया में हस्तक्षेप या बाधा डाली जाती है तो उसे भी न्यायालय की अवमानना माना जा सकता है। यह अपराध न्यायिक प्राधिकारियों का अनादर या न्यायिक आदेशों की अवज्ञा है।
भारत में न्यायिक की अवमानना अधिनियम सबसे पहले अंगे्रजी हुकूमत के दौरान 1926 में पारित किया गया था। इसमें 1937 में संशोधन किया गया। स्वतंत्रता के बाद पहला अवमानना कानून 1952 में पारित किया गया तथा विद्यमान अधिनियम 1971 में बनाया गया तथा इसमें 2006 में संशोधन किया गया जिसमें सच्चाई को एक वैध बचाव माना गया है जबकि वह लोक हित में कहा गया हो। 1971 के अधिनियम की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है कि इस अधिनियम का उद्देश्य न्यायधीशों की व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा करना नहीं अपितु न्याय के प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया की रक्षा करना है।
न्याय देने का हमेशा एक पवित्र जिम्मेदारी के रूप में सम्मान किया जाना चाहिए। अनेक देशों में न्यायालय की अवमानना को अब एक दंडनीय अपराध नहीं माना जाता है। मौनवाद से न्यायालय सुदृढ नहीं बन सकते हैं, यह बात 1936 में ब्रिटेन लार्ड एटकिन ने कही थी। ब्रिटेन में न्यायालय की अवमानना कानून के प्रयोग न होने के कारण व्यावहारिक रूप से यह यहां रद्द कर दिया गया है। किंत पब्लिक आॅर्डर एक्ट, 1986, कम्युनिकेशन एक्ट, 2003 आदि के अंतर्गत न्यायालयों को बदनाम करना आज भी वहां दंडनीय अपराध है। आस्टेÑलिया में एक न्यायधीश ने टिप्पणी की थी कि जब तक बचाव पक्ष आलोचना के अधिकार का वास्तविक प्रयोग कर रहा है और जब तक वह किसी दुर्भावना से कार्य नहीं कर रहा है वह इस कानून से बच सकता है।
अवमानना के मामलों में निर्णय करने में बचाव पक्ष के इरादे महत्वपूर्ण बन जाते हैं। अमरीका में न्यायधीशों या कानूनी प्रक्रिया के विरुद्ध टिप्पणी करने को न्यायालय की अवमानना नहीं माना जाता है। अमरीका के संविधान में पहले संशोधन द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंधों को हटाया गया है क्योंकि सिद्धान्तत: वहां इस बात को स्वीकार किया गया कि जनता से जुडे मुद्दों पर बहस स्पष्ट और खुली होनी चाहिए। न्यायालय की अवमानना अधिनियम में संशोधन के बारे में विधि आयोग की 2018 की 274वीं रिपोर्ट में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख किया गया है और यह घोषणा की गयी कि इस कानून में किसी भी संशोधन से उच्चतम नयायलय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति प्रभावित नहंी होंगी क्योंकि ये शक्तियां साविधिक प्रावधानों से स्वतंत्र है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निर्भीक न्याय के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है और इसीलिए न्यायालय की अवमानना को एक अपराध माना गया है और इसीलिए अवमानना के विरुद्ध कानून बनाया गया है। बचाव पक्ष द्वारा दिए गए संदेशों की संवीक्षा और इसके संभावित प्रभाव भौतिक अभिव्यक्ति, शारीरिक हावभाव, संदेश देने की शैली और सामाजिक परिस्थितियां अवमानना का निर्णय करने में महतवपूर्ण बन जाती है। यह वास्तव में न्यायालय के लिए एक कठिन कार्य है कि वह न्यायिक प्रणाली में सुधार के लिए रचनात्मक टिपपणियों और विध्वंस्वात्मक आलोचना के बीच अंतर करे। विध्वंस्वात्मक टिप्पणियों का उद््देश्य न्यायिक प्रणाली को कमजोर करना तथा न्यायिक प्रशासन को बदनाम करना होता है।
आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है इसलिए मानहानि और न्यायालय की अवमानना जैसे अपराधों की गुंजाइश भी बढती जा रही है। इसलिए तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए तथा दुर्भावना से किसी के विरुद्ध की गई टिप्पणियों को संरक्षण नहंी दिया जाना चाहिए। शब्दों का संदर्भ में अर्थ और प्रयोजन होता है। अत: स्वतंत्रता की रक्षा तथा घोटालों को रोकने के लिए न्यायालय की अवमानना कानून की समीक्षा किए जाने की आवष्यकता है।
-डॉ. एस सरस्वती
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