उन्नीसवीं शताब्दी की घटना है। भारत पर अंग्रेजों का अधिपत्य था। बंगाल नील साहब के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था। कलकत्ता के कुछ नवयुवकों ने इन अत्याचारों पर प्रकाश डालने के लिए एक नाटक का आयोजन किया। अन्य अतिथियों के अतिरिक्त प्रकाण्ड विद्वान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर भी नाटक देखने के लिए आए। नाटक में विभिन्न दृश्यों के माध्यम से नील साहब के अत्याचार प्रस्तुत किए गए।
दृश्यों के प्रस्तुतीकरण में इतनी स्वाभाविकता थी कि दर्शकों की आँखों से आँसुओं की निर्झरणी बह निकली।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर क्रोध से लाल-पीले हो गए। उन्होंने अपने पैर से चप्पल निकाली और लोगों पर अत्याचार कर रहे नील साहब का अभिनय करने वाले नवयुवक को दे मारी। नाटक पूर्ण होने पर नील का अभिनय करने वाला नवयुवक तुरंत विद्यासागर के चरणों में गिर पड़ा। बड़े विनम्र भाव से वह बोला, ‘‘आपकी चप्पल से बड़ा उपहार हमें नहीं मिल सकता, हमारा नाटक सार्थक हुआ। अब हमें विश्वास हो गया कि सारा बंगाल हमारे साथ है।’’
-तनसुखराम गुप्ता
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