पति-पत्नी दोनों ही समाज सेवा के कार्य करते हैं। शहर में अच्छी धाक है दोनों की। रोज सभा में जाते हैं। नारी चेतना, नारी शक्ति दहेज विरोधी धुआँधार भाषण देते हैं।
इकलौता बेटा ऐसे ही माहौल में बड़ा होने लगा। अब वे दोनों बेटे के विवाह के सपने देखने लगे। मन ही मन बड़े-बड़े घराने की बेटियों को घूरना शुरू कर दिया, पर एक दिन बेटा किसी लड़की को लेकर घर आया और बताया कि यह मेरी पत्नी और आप दोनों की बहू है। दोनों ने उसका औपचारिक स्वागत किया और मन ही मन कोसने लगे। दहेज का सपना जो अधूरा रह गया। एकांत में दोनों विचार-विमर्श करने लगे।
पत्नी ने पति से कहा-‘‘ताज्जुब होता है कि हमारे ही बेटे को यह कदम उठाना था?’’
पति ने खीझ कर कहा-‘‘हाँ, समझ में नहीं आता, मै तो समझता था कि इस जमाने की औलाद नालायक होती है। इन पर किसी बात का असर ही नहीं होता। पर हमारे भाषणों का असर हमारे ही बेटे पर दिखाई देने लगा, ऐसा क्यों?’’
अमृता जोशी, जगदलपुर (छत्तीसगढ़)
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